पुरुष बली नहीं होत है, समय होत बलवान

“पुरुष बली नहीं होत है, समय होत बलवान” इस कहानी में एक जोशीले ड्राइवर की कथा के बहाने उस दौर के गँवई परिवेश का खाका खींचा गया है…

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इस कहानी में एक जोशीले ड्राइवर की कथा के बहाने उस दौर के गँवई परिवेश का खाका खींचा गया है। गाँवों में आबादी विरल होती थी। आस-पास गन्ने के खेत होते थे, जो जंगली जानवरों और चोरों के छुपने की आदर्श जगह होती थी।

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वे वाहन चलाकर जीविकोपार्जन करते थे। अमेरिका में भी मालिक-कम-चालक पाए जाते हैं, लेकिन वे वहाँ ‘ओनर-ऑपरेटर’ या डबलस्टफ्स्’ के नाम से जाने जाते हैं। ऑटोमोबाइल के आरंभिक युग में ऐसे चालक भी होते थे, जो कुशल मैकेनिक भी रहते थे। वे शोफ़र कहलाते थे।
वे समस्त गुणों से संपन्न होते हुए भी ऑटो ड्राइवर कहलाते थे। चूँकि वे विकासशील देश में अपनी सेवाएं दे रहे थे। वैसे किसी दौर में विकसित देशों में सेवाएं देने का उनका बहुत मन हुआ। ख़ैर जमाने की मजबूरी। मन-मसोसकर यहीं रुकना पड़ा। एक तीर्थ नगरी से दूसरी तीर्थ नगरी तक सेवायें देते थे अर्थात् सवारी ढ़ोया करते थे। एक ओर विलियम ग्रोवर, जूलियस शेरेक व रुजवेल्ट जेंडर्स जैसे इतिहास प्रसिद्ध शोफ़र्स हुए हैं।

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कथानायक इनसे कमतर न थे। साहस में तो बढ़-चढ़कर ही रहे होंगे। हालांकि जन्मजात कुब्ज थे। तो भी इसका उनके कौशल और साहस पर किंचित् भी प्रभाव न दीखता था। साहसिक कार्यों में तो स्वयं को असाधारण मानते थे। निडर इतने कि संकट को उन तक आने की आवश्कता ही नहीं पड़ती थी। वे स्वयं कूदते-फाँदते दो कदम आगे बढ़कर, संकट तक पहुँचकर, खुद संकट के गले पड़ जाते थे। संक्षेप में संकटों का समग्र अनुभव लेने की शौकीन थे।

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एक दिन की बात है। शहर कोतवाल इलाके का राउंड लेकर लौट रहे थे। मुख्य मार्ग पर एक ऑटो दौड़ रहा था, सड़क के बीचों-बीच। आगे का मार्ग ढ़लानयुक्त था। ऑटो अब ढ़लान पर दौड़ रहा था। कोतवाल साहब एकाएक चौकन्ने हो गए। झाँकने पर भी उन्हें ड्राइविंग सीट पर ड्राइवर न दिखाई दिया। किसी अनहोनी की आशंका नें उन्हें चौकन्ना कर दिया। स्वत: लुढ़कते ऑटो से विपरीत दिशा से आ रहे वाहनों की टक्कर हो सकती थी। बड़ी अनहोनी हो सकती थी। सतर्कता बरतते हुए उन्होंने मोटरसाइकिल की स्पीड बढ़ा दी। ऑटो को ओवरटेक किया। ओवरटेक करते हुए ड्राइविंग सीट पर संक्षिप्त-सी दृष्टि डाली। उन्हें आश्चर्य हुआ और उनका मुँह खुला-का-खुला रह गया, जब आसन पर विराट आभा के साथ, ड्राइवर सहज मुद्रा में विराजमान दिखाईं पड़ा।

कुछ छात्रों की सूचना के अनुसार गुरुजी ‘भुर्ता’ नामक रेसिपी बनाने में परम दक्ष थे. वे यह भी बताते थे कि गुरुजी भूस भरकर ‘टैक्सीडर्मी’ का भी अच्छा शगल रखते हैं.

उनकी साँस में साँस आ चुकी थी। उन्होंने आगे साइड लेकर मोटरसाइकिल खड़ी की और ऑटो को रुकने का संकेत दिया। घरघराते हुए ऑटो रुक गया। कोतवाल साहब ने अपनी दुश्चिंताएँ ड्राइवर को बतानी चाहीं। नसीहत देना शुरु ही किया था कि अवरोध उत्पन्न हो गया। ड्राइवर ने छूटते ही सरपट एम.वी. एक्ट के सारे सेक्शंस गिनाकर धर दिए। वे अभी तक ड्राइवर की प्रतिभा से अनभिज्ञ थे। ड्राइवर साब तनकर खड़े हुए और बोले,
“साहब! पीछा करते हुए तो क्या, आगे से भी ड्राइवर को दिखना जरुरी नहीं है, आपके एक्ट में। ‘बस ट्रांसपेरेंट विंड स्क्रीन’ की जरूरत बताई गई है और वो मेरे ऑटो में लगी हुई है। बाकायदा दिख रही है।”

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कोतवाल साहब को मुलायमियत दिखानी पड़ी । ‘मेरी ऐसी मंशा नहीं थी’ कहकर उन्होंने बात टालने की कोशिश की। ड्राइवर साहब तो थे ही शूरवीर। फैल मचाने के पुराने आदी। ऐसे मौकों पर यूँ ही नहीं चूकने वाले थे। सोचा वैसे भी, ऐसे मौके मिलते ही कितनी बार हैं। बोले, “देखो साहब! मेरी हड्डियों के जोड़ पक्के हैं। पूरी-की-पूरी टंच। कलर ब्लाइंड हूँ नहीं। पूरे के पूरे रंग पहचानता हूँ। आप की वर्दी का रंग अच्छे से पहचानकर बता सकता हूँ। ड्राइवर होने के लिए आपके एमवी एक्ट में इससे ज्यादा नहीं बताया गया है।”
कोतवाल साहब को उनसे तर्क-वितर्क करना व्यर्थ जान पड़ा। अघट घटने का-सा भाव उनके चेहरे पर दिख रहा था। अतः उन्होंने अपना पिंड छुड़ाना उचित समझा। उन्होंने अपनी ढ़लती उम्र का तकाजा दिया और ‘आसन ऊंचा करवाने’ की ताकीद देकर चले गए।

यह कहानी गुरु शिष्य परंपरा पर आधारित है, जब उस दौर में शारीरिक दंड को शिक्षा प्रणाली का अनिवार्य अंग मानने की प्रथा थी.

उस दौर में गाँव क्या था, गाँव के नाम पर वज्र देहात था। अंधेरा घिरते ही सन्नाटा व्याप्त हो जाता था। जो भी चहल-पहल रहती थी, चौर्य-कर्म करने वालों के कारण रहती थी। शाम होते ही चोरों और साहसिक लोगों की टोलियाँ सक्रिय हो जाती थी। निर्जन राह पर राहजनी आम बात थी। आबादी विरल थी। आबादी के आसपास घनी झाड़ियाँ थीं। चौतरफा गन्ने के खेत। चहुँओर प्राकृतिक सुषमा छायी रहती थी। ये सब दृश्य चोरों के लिए आदर्श वातावरण उपलब्ध कराते थे। उन्हें यह वातावरण मनोरम ही नहीं लगता था, अपितु मनोहारी सा प्रतीत होता था। धुँधलके में चलने वाले राहगीर प्रायः लुट-पिट जाया करते थे। फिर भी जान बची रहने पर ईश्वर को धन्यवाद देते। भूमिया देवता को सवा रुपए का प्रसाद चढ़ाना नहीं भूलते थे।

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एक बार इसी गाँव में एक मेहमान आ रहे थे। पैदल थे। चलते-चलते राह भटक गए। इसी ऊहापोह में अंधेरा घिर आया। इसी मध्य उनके साथ राहजनी भी संपन्न हो गई। आतिथेय के घर अतिथि गिरते-पड़ते ही पहुँच सके। संक्षिप्त सी वेशभूषा में थे। सबकुछ लुटा बैठे, लेकिन आदमी बड़े जीवट वाले थे। दृढ़ इच्छा शक्ति के सहारे ही पहुँच पाए।

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इसी गाँव के निवासी एक सज्जन थे। रोज की तरह ड्यूटी से घर आ रहे थे। उस दिन लौटते-लौटते राह में ही अँधेरा घिर आया। परिणामस्वरुप वे वटवृक्ष के नीचे समाधिरत् अवस्था में प्राप्त हुए। उनके मुख पर गमछे का चीर बँधा हुआ था। शरीर कृशकाय तो नहीं हुआ था, टूटा-फूटा और जीर्ण-शीर्ण लग रहा था। काषाय चीवर के बजाय यूनिफॉर्म ही थी, किंतु झालरनुमा और चीथड़े हो चुकी थी।

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लोक कथाओं में सियारों की अभिरुचियाँ बताई जाती हैं। गन्ने के खेत उन्हें अतिशय प्रिय रहे हैं। घनी झाड़ियाँ, चौतरफा गन्ने के खेत सियारों और जंगली सुअरों के नैसर्गिक वास हुआ करते थे। गाँव में जंगली जानवरों व मनुष्यों का शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व बना हुआ था। साहसिकों के लिए वारदात के पश्चात् गन्ने का खेतों का आश्रय लेना आम था। सामरिक दृष्टि से उपयुक्त पड़ता होगा। एकदम पंचतंत्रनुमा माहौल सजीव हो उठता था। नदी किनारे के अथवा आबादी के छोर पर बने मकान चोरों को अधिक आकर्षित करते थे। साहसिक टोलियाँ, नाना प्रकार की युक्तियाँ आजमाती थी। दरवाजे के कल-कब्जे उखाड़ने, सेंध लगाने से लेकर मुख्य द्वार को ध्वस्त करने तक की विधियाँ अपनायी जाती थी।

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वैसे तो दस्यु दल अपने कर्म में शांति से लगे रहते थे। उनके कर्म में अवरोध उत्पन्न न करने वाले परिवारों के प्रति वे सहिष्णु ही बने रहते थे। डकैती योजनाबद्ध ढ़ंग से की जाती थी। गृह प्रवेश करते ही कुछ सदस्य चारपाईयों के सिरहाने नियुक्त हो जाते थे। अन्य माल-असबाब समेटते। सिरहाने पर नियुक्त साहसिक हथियार लिए पर्याप्त सतर्क बने रहते थे, इसीलिए सोए हुए व्यक्ति के सिर का लक्ष्य लिए सन्नद्ध मिलते थे। सोये हुए व्यक्ति के सोये रहने तक शांति-व्यवस्था बनी रहती थी। उसके अलसाते हुए आँखें खोलने पर वे रूठ जाते थे। अन्यथा अनाक्रमण के सिद्धांत का कठोरता से पालन करते थे। कभी-कभी चौर्य-कर्म की खटपट की आवाजें सुनकर कुछ बच्चे, कभी-कभी बड़े भी जाग जाते थे। जागते ही रोना-चीखना शुरू कर देते थे। रोकर उनके काम में विघ्न डालने वालों की वे पक्की खबर लेते थे।

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अंधेरा घिरने से पूर्व ही ग्रामीण चाक-चौबंद होने लगते थे। अपनी-अपनी प्रतिरक्षा- योजना को मूर्त रुप देने लगते थे। खटिया खड़ी करके दरवाजे से सटा लेते थे। दरवाजे से सटाते हुए बर्तनों का पिरामिड खड़ा कर देते थे। कुछ विरले ही थे जो लाल मिर्चा पीसकर रखते थे। सूरज ढ़लते ही सियारों का हुआँ-हुआँ का स्वर गूँजने लगता था। इस प्रकार की श्रव्य-दृश्य सुविधा घर-आँगन के आसपास ही उपलब्ध मिलती थी।

ये कहानी उस दौर के दूरदराज के स्कूल की है, जब आज की तरह साधन मौजूद नहीं थे..

उस दिन साँय हो चली थी। रात होते ही हुआँ-हुआँ के स्वर को चोर-चोर के शोर ने आच्छादित कर लिया। कुछ उत्साही नौजवानों ने हाल ही में पहरा देना शुरु किया था। उन्होंने पहरा समितियों का गठन किया हुआ था। निःशब्द रात्रि थी। हुआँ-हुआँ व चोर-चोर का अनुनाद आपस में गड्डमगड्ड होता जा रहा था। बारी-बारी से टोलियाँ पगडंडियों से गन्ने के खेतों में विलीन होती जा रही थी। ‘चोर-चोर’ का स्वर ‘पीछा करो! भागने न पाए!’ की लय पर टूटता जा रहा था। ‘जागते रहो! पीछा करो!’ के स्वर के साथ कई टोलियाँ गन्ने की खेतों में अंतर्धान होती जा रही थी।

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कथानायक भी हाँका करने वाले दल में शामिल थे। ऐसे मौकों पर वे सर्वदा प्रस्तुत मिलते थे। छलाँग लगाते हुए सदैव तत्पर। वैसे भी सम्मान और यश का कोई भी अवसर वे नहीं चूकना चाहते थे। उनकी तूती यूँ ही नहीं बोलती थी। बहादुरी में तो वे अपनी शोहरत भी मानते आ रहे थे। आज उनके मन में उनचास पवन एक साथ बहने लगे। बिना किसी पूर्व भूमिका की ही वे कुलाँचे भरते हुए दौड़ने लगे। अन्य हँकवारे भी साथ में दौड़ रहे थे। दौड़ते- हाँफते सर्दी में भी पसीने से तर-बतर को चुके थे। वे पेशेवर ड्राइवर थे। सो इन्होंने अचानक अपने पैरों की स्पीड बढ़ा ली।
अब वे हवा के माफिक दौड़ रहे थे। प्रतिबद्ध किस्म के तो थे ही। अतः पैर फेंकते, लपकते हुए दौड़े चले जा रहे थे। भागते-भागते कब तक दस्यु दल के साथ भागते रहे, इसका उन्हें पता ही नहीं चल सका।

जल्दी खत्म ये डरावनी रात होगी, फिर से नवजीवन की शुरुआत होगी..

गाँव की सरहद काफी पीछे छूट चुकी थी। अनायास ही वीरता दिखाने को वे हमेशा-से व्यग्र रहते थे। आज अवसर मिला हुआ था। अभी तक वे दस्युदल को हाँका-दल की मान्यता देते आ रहे थे। चूक तब हुई जब इन्होंने दस्यु दल को भी ओवरटेक कर लिया। उसी क्षण एक साहसिक ने लपककर इनकी गरदन पकड़ ली। संभवतः दस्यु दल ने उन्हें शुरुआत में ही पहचान लिया था, जब इन्होंने उनके मध्य ट्रैक पर दौड़ना शुरु किया।

घरेलू हो गया मैं आज़, पर पालतू नहीं ….. ख़ाली बैठा हूँ मैं आज़, पर फ़ालतू नहीं …..

दरअसल गिरोह में कुल छह सदस्य थे। सातवें विजातीय को उसकी विचित्र देहयष्टि के कारण पहचानने में उन्हे क्षणिक विलंब न हुआ होगा। वे सुरक्षित दूरी तक पहुँचना चाहते थे। तब इस नई समस्या से निपटना चाहते थे। वे उनकी धावन-गति से प्रभावित तो नहीं हुए, शायद ओवरटेक करने को लेकर क्षुब्ध जरूर हुए होंगे। उनके आत्मसम्मान को ठेस लगी होगी। हो सकता है अभिमान भी आहत हुआ होगा। अतः गिरोह अपने मन के ईर्ष्या भाव का दमन न कर सका। जैसे ही उन्होने संयम खोया, वैसे ही इनकी गरदन भूमि पर टिका दी।

‘ कुछ खोयी हुई यादें ‘

उनकी गरदन पर खड्ग रखी और ‘बोल तेरे साथ क्या सलूक किया जाए’ कहकर अंतिम इच्छा पूछी गई। तत्पश्चात् उन्हे रुंड-मुंड का सीन याद दिलाया। उन्होंने अपने हिसाब से कुछ वाजिब सवाल भी पूछे। वैसे धावक का चोर-वाहिनी को अपनी धावन-प्रतिभा से दग्ध करने का कोई इरादा नहीं था। न ही अपमानित करने का ही कोई भाव था। उन्हे दिव्य अनुभव हो चुका था। इस परम अनुभूति के क्षण में उन्होंने स्वयं को कुछ भी कहने में असमर्थ पाया। शायद ‘म्यूट मोड’ में चले गए थे। उन्हें या तो उपयुक्त शब्द नहीं मिल रहे थे अथवा प्राणभय उनको कुछ भी बोलने से रोक रहा था। प्राणों के ग्राहक उनको घेरे खड़े थे।

बदल गए हैं रंग सारे..

‘देहधारी की मृत्यु शत्रु के हाथों नहीं होती। वह ईश्वरीय विधान से नियत होती है।’ शास्त्र ऐसा कहते आए हैं। अतः मानमर्दन करके उन्हें मुक्त कर दिया गया। वीरों की गति वे लंबे समय से दिखाते आ रहे थे। उस कड़ी में आज वीरगति प्राप्त होने से रह गए। मध्यरात्रि में वे वापस लौटे। मुँह फेरे आ रहे थे। कमल-मुख फूलकर कुप्पा हो गया था। खुशी से नहीं फूले हुए थे। मरम्मत करवाकर लौटे थे। चेहरे पर विस्मय-सा फैला था। मायूस और हताश-से लग रहे थे। इसके बावजूद रो नहीं रहे थे। अन्य को आपबीती घटना का रोमहर्षक विवरण सुना रहे थे।

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