यह कहानी गुरु शिष्य परंपरा पर आधारित है, जब उस दौर में शारीरिक दंड को शिक्षा प्रणाली का अनिवार्य अंग मानने की प्रथा थी.

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यह कहानी गुरु-शिष्य परंपरा पर आधारित है। उदारीकरण से पहले के भारत में ग्रामीण क्षेत्रों के स्कूलों में सुविधाएं आज की तरह मौजूद नहीं थी.


कुंभ व कुम्हार- एक मिडिल स्कूल छात्रों के शारीरिक व मानसिक विकास की दृष्टि से महत्वपूर्ण सोपान माना जाता है। मिडिल कक्षाओं में हम कॉन्वेंट स्कूलों के उच्चारण की दृष्टि से ”सेंट टाट’ स्कूल के विद्यार्थी थे। मुराद उन परिषदीय विद्यालयों से हैं, जिनमें छात्र जूट के टाट में सीधे मेरुदंड की अवस्था में, पद्मासन-मुद्रा में विराजते थे। यानी टाट पट्टी में आलथी-पालथी मारकर बैठते थे.

फोटो साभार सोशल मीडिया


उस दौर में शारीरिक दंड को शिक्षा प्रणाली का अनिवार्य अंग माने जाने की प्रथा थी। विद्यार्थी की अस्थिचर्ममय देह गुरुजनों के सुपुर्द कर दी जाती थी। देह का कॉपीराइट भी दे दिया जाता था। ऐसे अवसरों पर बोल बच्चन का उद्घोष भी किया जाता था– ‘चर्म आपका, अस्थि हमारी’ यानी इसकी हड्डी हमारी, चमड़ी तुम्हारी। इसे इंसान बनाने के लिए जितनी चमड़ी उधेड़नी है, संकोच मत करना।
अभिभावक इस पहलू पर महर्षि चार्वाक को फॉलो करते थे। चार्वाक की मान्यता थी-
दंड नीति ही सच्ची नीति है। अन्य नीतियाँ भी इसी के अंतर्गत आती हैं– ‘दंडनीतिमेव विद्या अत्र वार्ता अंतर्भवति।’
शारीरिक दंड विधान को निहायत जरूरी बताया जाता था। दंड विधान में छः गुणों की प्रचुरता बताई जाती थी। गुणकारी विधान होने के कारण शिक्षकों एवं अभिभावकों (वर्तमान पी.टी.ए.) में इस तत्व के पक्ष में एकराय रहती थी। दंड विधान के गुणधर्म थोक में गिनाए जाते थे। जिनमें से कुछ इस प्रकार थे-
एक– यह विद्यार्थी को अनुशासित बनाता है।
दो– विद्यार्थी की अस्वीकार्य प्रकृति या व्यवहार को नियंत्रित करता है।
तीन– आदेशों के त्वरित कार्यान्वयन में सहायक होता है।
चार– इसको लागू करने में कोई लागत नहीं आती। जेब से एक धेला भी नहीं लगता है।
पाँच– कुछ छात्रों में स्वाभिमान अहंकार के रूप में पनप सकता है। अतः दंड विधान उनके अहम के विगलन में सहायक होता है। कूट दो। घमंड धरा रह जाएगा। बच्चा मजबूत करैक्टर का होकर निकलेगा।

फोटो साभार सोशल मीडिया (सांकेतिक)


जिस स्कूल में ठुकाई नहीं होती थी, अभिभावक मात्र इस तथ्य के आधार पर उस स्कूल के शिक्षण स्तर का मूल्यांकन ‘हीन श्रेणी’ में कर बैठते थे। तत्समय इस सिद्धांत का व्यापक रूप से बोलबाला था कि– ‘अनुशासन बड़ी चीज है। पढ़ाई-लिखाई तो बाद की बात है। अनुशासन बनता है–बेंत से।’
तत्कालीन पी.टी.ए. द्वारा शारीरिक दंड को व्यापक रुप से अनुमोदन मिला हुआ था।
हालांकि इस विधान को सामाजिक वैधता पूर्व से ही प्राप्त थी। संक्षेप में ठुकाई को बुरा नहीं माना जाता था। जो मास्टर जितनी कुटम्मस करता, उतना ही काबिल माना जाता था। काबिलियत का एकमात्र पैमाना था –स्थूल पैमाना, स्थूल दंड के रूप में।
शारीरिक दंड संहिता का प्रथम लिखित साक्ष्य दसवीं शताब्दी ईसा पूर्व सम्राट सोलोमन की संहिता में मिलता है। बाद में पाश्चात्य आचार्य बेंथम ने इस संहिता का समर्थन किया। अपनी शाकाहारी वाणी में उन्होंने वार्ता प्रसारित की थी कि–‘शारीरिक दंड का उद्देश्य प्रतिशोधात्मक नहीं, अपितु सुधारात्मक है।’

फोटो साभार सोशल मीडिया

हमारे संस्कृत शिक्षक प्रातः स्मरणीय रामानंद जी थे। वे स्वभाव से पुरातन काल के गुरुकुल आचार्यों की भाँति वीतरागी, निःसंग प्रवृत्ति के शिक्षक थे। संस्कृत के पाठ्यक्रम में तीस अध्याय होते थे। गुरुजी प्रतिदिन प्रतिपाठ का स्ट्राइक रेट रखते थे। इस गति से पंद्रह अगस्त आते-आते कोर्स पूरा हो जाता था। सोलह अगस्त से रिविजन शुरू करते थे। सवाल पूछे जाते थे। मुखाखर याद रखने का चलन था।
सहपाठी कहते थे कि गुरुजी के ऊपर महर्षि दुर्वासा और परशुराम का भर आता है। वे दंडनीति का कठोरता से पालन करते थे। किसी प्रकार की छूट की छुट्टी किए रहते थे। अध्यापन में उनके परम सहायक शस्त्र थे-  बेंत, छड़ी, संटी व नामालूम अस्त्र-शस्त्र। छमाही-सालाना इम्तिहान के समय बच्चे परम प्रसन्न रहते थे चूँकि उन दिनों कुटम्मस से बचत रहती थी।
गुरुजी ‘जेंडर बायस’ से  मुक्त थे। सभी को प्राणी मात्र मानते थे। लड़का लड़की में कोई भेद नहीं। सबकी समभाव से कुटाई-पिसाई करते रहते थे। मरम्मत जोर-शोर से होती थी।
    उनकी कक्षा शुरू होने से पूर्व ‘पिन ड्रॉप सायलेंस’ छा जाती थी। सन्नाटा व्याप जाता था। टाट पट्टियाँ स्वतः समकोण पर सीधी हो जाती। बच्चों का बंकिम मुख म्लान हो जाता। आनन से मुस्कान विलीन हो जाती थी।
अनुत्तरित प्रश्नों पर वे स्वयं काँपने लगते थे। तत्पश्चात् उनका स्वर काँपता था। इस प्रकार वे आत्म नियंत्रण की वल्गा फेंककर आर्तनाद का सुरम्य वातावरण निर्मित करते थे।
वे धातुरूप, विभक्ति, वचन, लिंग, पुरुष, समास, विग्रह, कारक, वाच्य के आकार-प्रकार पर खोद-खोदकर सवाल पूछते थे। कालांतर में संयोगवश हमसे भी एक धक्के में जे.आर.एफ. प्रवेशिका उत्तीर्ण हो गई। उसके बाद ही हम जान पाए कि पाणिनिकृत अष्टाध्यायी के ‘शब्दानुशासन’ का काढ़ा गुरुजी हमें मिडिल क्लास में ही पिला चुके थे। वे ज्ञान को नल्ले से पिलाते थे। ठूँस-ठूँसकर पिलाते थे। गुरु कृपा के बिना यह संभव भी नहीं था।

फोटो साभार सोशल मीडिया

मेरे दो चचेरे भाई थे। अवस्था में मुझसे बड़े थे। वे भी मेरे सहपाठी थे। पाठ याद करने में दोनों नियमित रूप से अनियमित थे। कक्षा में सवालात पूछे जाते थे। दमन चक्र साथ-साथ चलता रहता था. कुटुम्मस प्रथम पंक्ति से आरोही क्रम में चलती थी। मेरी शुद्धि शुरुआती दौर में ही संपन्न हो जाती थी। बंधुद्वय में व्यावहारिक चातुर्य प्रचुर मात्रा में विद्यमान था। चतुराई कूट-कूटकर भरी हुई थी। अतः वे सामरिक दृष्टि रखते थे और नवीं- दसवीं पंक्ति में विराजते थे। वे बाज-सी पैनी निगाहें रखते थे। एक-एक क्षण पर पैनी दृष्टि रखते। जिस क्षण गुरुजी चौथी-पाँचवीं पंक्ति की शुद्धि कर रहे होते थे, वे गुरुदृष्टि से बचकर ‘चेक्ड एंड वेरीफाइड’ लाइन में शरणार्थी बन जाते थे। उधर कक्षा में समवेत रुदन चलता रहता था। वे दोनों सुरक्षित रणनीति अपनाकर सुरक्षित रहते थे। रुदन करते बच्चों से फुसफुसाहट में कहते-
“पैजामा कमर के निकट एकवचन और पाँयचों के निकट द्विवचन होता है।”
समय की गति अत्यंत सूक्ष्म होती है। समय की बलिहारी है। हाय रे! दुर्दैव! एक दिन जब वे सीमा रेखा पर ‘ट्रेसपासिंग’ की चेष्टा कर रहे थे, अर्थात् नवी-दसवीं लाइन से पिट चुकी तीसरी-चौथी लाइन में घुसने की चेष्टा कर रहे थे, उन पर गुरुजी की निगाह पड़ गई। गुरु जी ने शेष कक्षा को छोड़कर निगाहें उन्हीं पर गड़ा दी। पहले तो बच्चों को लगा कि गुरुजी उन्हें ‘मैस्मेंराइज़’ कर रहे हैं। तत्पश्चात् अंगारक नेत्रों को देखकर लगा कि आज गुरुजी उन्हें भस्म करके ही छोड़ेंगे। उस दिन शेष कक्षा कुटम्मस से सुरक्षित रहीं। कुटुम्मस की सारी मदें उन दोनों पर केंद्रित हो गई।
छुट्टी के बाद वे हमारे कंधों का सहारा पाकर घर पहुंचे। रास्ते भर बेबी स्टेप्स में धीमे- धीमे, सधे कदमों से चल रहे थे। तेज चलने पर हम को डांट रहे थे। चलते- चलते गुरुजी को ‘मरखन्ना’ संज्ञा से सुशोभित कर रहे थे। सप्ताहभर वे पलंगशायी रहे व दुग्धहरिद्रापेय का सेवन करते रहे। चूने व दर्दमार के पत्तों से उनकी सिकाई नियमित रूप से होती रही।

फोटो साभार सोशल मीडिया

विद्यालय में पेयजल संयोजन नहीं था। वस्तुतः विद्यालय भवन भी नहीं था। आजादी के बाद लागू भू-सुधार कानून के अंतर्गत किन्हीं पूर्व जमींदार की अधिशेष भूमि में चाकरों के प्रयोजन के लिए एक विशाल पर्णकुटी बनायी गया थी। वही हमारा विद्यालय भवन था। उस भग्नावशेष संरचना से आधा कोस की दूरी पर एक प्राकृतिक सोता था। सोता भूमिगत जल से जनित स्प्रिंग होता है। इसी सोते से पेयजल की आपूर्ति होती थी।
हमारे चचेरे भाई तीसरे घंटे के फौरन बाद बाल्टी को बाँस के छह फुटे डंडे में लटकाकर प्रस्थान कर जाते थे व हाफ टाइम होने पर भरी बाल्टी के साथ वापस लौटते थे। यह उनका नित्य का क्रम था। उन्होंने यह नवीन युक्ति खोज निकाली, जिसके मूल में चौथे घंटे अर्थात् संस्कृत की क्लास से मुक्ति का भाव प्रधान था। इधर अन्य पिटते-पिटते तंग आ चुके थे। लंबे समय तक बंधुद्वय सुख-वैभव का जीवन बिताते रहे। हम दीन दुखियों ने भी उनसे एक बार मौका देने की अनुनय-विनय की लेकिन उन्होंने इस प्रार्थना को सिरे से नकार दिया। उनका दावा था कि रचनात्मक कार्य तो वे ही करेंगे। चूंकि पानी पिलाने से पुण्य मिलता है, इसलिए इस पुण्य को किसी भी कीमत पर अपने हाथों से नहीं जाने देंगे। इस भलाई के काम के लिए वे हर प्रकार के कष्ट सहने को तैयार है। वे श्रेष्ठ है, तभी इस प्रकार की जिम्मेदारी वहन करने में समर्थ हैं। जॉन स्टुअर्ट मिल ने भी कहा था कि-
“योग्य व्यक्तियों को श्रेष्ठ व दुष्कर कार्य करने की आजादी मिलनी चाहिए।”

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समय की बलिहारी है। धर्म की गति अत्यंत सूक्ष्म बतायी जाती है। एक बार पुन:वह सुहाना समय आया। उस दिन गुरुजी ने बंधुओं को बाल्टी में बाँस फँसाते हुए देख लिया। इस विहंगम दृश्य को देखकर गुरु जी काँपने लगे। काँपते हुए स्वर में उन्होंने उन दोनों का आह्वान किया था-
“बाल्टी वहीं पर रख दो और बाँस के साथ मेरे समीप आओ।” ‘उ
‘उपनिषद’ का शाब्दिक अर्थ भी समीप आने से ही है। संपूर्ण उपनिषद् काल में गुरु शिष्य से समीप आने का आह्वान करते आये हैं। सर्वप्रथम गुरुजी ने उन दोनों के पुराने एरियर को चुकता किया। बाँस के सहयोग से शेष को निश्शेष किया। तत्पश्चात् हाथ-पैर नत्थी करके वायुमंडल में फेंका और स्ट्रेटोस्पियर की नि:शुल्क सैर कराई थी।
गुरुजनों का कठोर व्यवहार कभी-कभी लाभदायक व गुणकारी रहता है, जो हमेशा छात्रहित में पड़ता है। क्वचित् दोषो गुणायते। 

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