उच्च शिक्षा पाने को देहाती लड़कों को कैसे- कैसे जतन करने पड़ते थे…(पढ़ें कहानी)

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हमारे एक सहपाठी थे। वे अभिभावकों को अपने परीक्षा-परिणाम का ठीक विपरीत फल बताते थे। कभी-कभी वे उत्तीर्ण भी हो जाते थे। उन वर्षों में वे परिणाम बताने के प्रथम चरण में रोनी सूरत बनाते थे। अगले चरण में भाग्य का रोना रोते। इस तरह नाना प्रकार की लीलायें धरकर वे घर पर अनुत्तीर्ण-फल रिकाॅर्ड कराया करते थे।

मित्रों द्वारा असत्य कथन बावत् पूछे जाने पर कहते थे, “मात्र इस कथन से मैं वर्ष भर आंतरिक सुख से परिपूर्ण रहता हूँ। चैन रहता है। अब इस साल की कौन-सी गारंटी है यार! एडवांस एडजस्टमेंट का भी तो सोचना पड़ता है। जीवन जीने की गुंजाइशें खोजनी पड़ती है पार्टनर! जीने के अपने-अपने तरीके हैंं दोस्त!।”

    परीक्षाफल अगर मुनासिब न रहता तो गार्जियन्स की हठधर्मिता व दमन नीति साल-भर चलती थी। उसमें किसी शिथिलता अथवा विराम की गुंजाइश नहीं रहती थी। ताने सुनकर, कोपभाजन बनकर भी वे अप्रभावित-से रहते थे। घर की उपेक्षा उन पर बाह्य-प्रभाव ही डाल पाती थी। आंतरिक प्रभाव पड़ना नामुमकिन-सा था। चूँकि वे वास्तविक फल-रहस्य जानते थे। अनुत्तीर्ण होने वाले वर्षों में अभिभावक उन्हें उत्तीर्ण जानते थे। अत: कलुषित नहीं करते थे। उन वर्षों में वे अंतर्मन से दु:खी व बाह्य तौर पर प्रसन्न रहते थे।  

एक तरह से यह एक नवीन प्रकार का जीवन-दर्शन था, जो उन्हें ‘फिफ्टी परसेंट’ दु:ख से निजात दिलाता था। इस ‘फिलाॅसाॅफी’ की वे शर्तिया गारंटी देते थे। परिणाम आने के बाद दो माह तक अपने मित्रों को सत्य बोलने से थामे रखते थे। ‘अभी नहीं आया’ बोलने की सामूहिक शपथ दिलाये रखते थे। इस व्यूह- संरचना से भी उन्हें अस्थायी-सी राहत मिलती थी।

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   उनके मोहल्ले से गुजरने पर दोस्त डरे-सहमे-से रहते थे। ‘उनके पिताजी ने देख लिया तो क्या होगा।’ इस भय से साँसत में फँसे रहते थे। अत: उस रेंज से चौकस-सतर्क होकर गुजरते थे। तेज-तेज कदमों से मोहल्ला पार करना होता था। कभी-कभी धोखे से पकड़ में आ जाते।

एक दिन उनकी नजर पड़ ही गयी। उँगली से संकेत देकर बुलाया। जाना पड़ा। अभिवादन किया। उन्होंने भी उचित आसन पर बिठाया। वार्तारंभ किया। घर की कुशल-क्षेम जैसे औपचारिक प्रश्नों पर नहीं गए। सीधे मूल प्रश्न पर आए, “रिजल्ट आया?”
उस समय तक रिजल्ट सचमुच नहीं आया था। “चाचाजी! अभी नहीं आया।” कहकर जबाब दिया। चिंता सवार थी कि किस तरह रिहाई हो। देर तक रुकना उचित नहीं जान पड़ रहा था। वे हठात् रोक रहे थे, “तुमने अभी तक बताया नहीं।”

 “जी! अभी तक तो नहीं आया था, आया होता तो मैं जरुर आपको बताता।”

” तो, अब बता दो।”

    उस दिन माताजी नें बीच में पड़कर जान छुड़ाई । दोस्त इतना बड़ा उलट-फेर किए रहते थे, राजा को रंक और रंक को राजा कहने का उनका यह खेल बरसों तक चलता रहा। संपूर्ण उच्च शिक्षा काल में उनका यह ‘एडजस्टमेंट’ बदस्तूर जारी रहा।

    खेती-बाड़ी सँभालनी होती थी। अतिरिक्त समय में शिक्षा भी ग्रहण कर लेते थे। जीवनचर्या अनियमित-सी रहती थी। कृषि-पशुपालन के साथ विज्ञान की कक्षाओं का सामंजस्य नहीं बैठ पाता था। भौतिकी पढ़ने के लिए कक्षा में भौतिक रूप से उपस्थित रहने में अड़चन पड़ती थी। इसलिए मन बहलाव के लिए ‘क्लास अटेंड’ करना बच्चों का खेल मान लिया जाता था। परीक्षाएँ और फसल-कटाई परस्पर ‘क्लैश’ किया करते थे। तो भी दोनों ‘इवेंट्स’ में अच्छी ‘परफाॅरमेंस’ दिखाने का दबाब बना रहता था। 

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     इन मिले-जुले कारणों से ‘लेबोरेटरी’ जाना नहीं हो पाता था। प्रायोगिक परीक्षा पास करनी ही होती थी। ‘प्रैक्टिकल्स’ में उपकरणों को तक नहीं पहचानते थे। पहचान तो तब होती, जब वहाँ कभी गए होते। साहचर्य से परिचय बढ़ता है। अत: उपकरणों को उपेक्षा की दृष्टि से देखते थे।

भौतिकी में तीन प्रयोग करने को मिलते थे। उनमें से दो को चुनने की आजादी रहती थी। वे ‘इलेक्ट्रिसिटी’ सर्किट्स के दूर से ही दर्शन कर आशंकित हो जाते थे। चूँकि वे विद्युत-स्पर्शाघात से भयभीत रहते थे। उन्होने एक ‘थंब रूल’ ईज़ाद किया हुआ था। जिस प्रयोग में सर्किट, वोल्टेज, करंट, एमीटर, ब्रिज, रजिस्टेंस आदि शब्द सुनाई दें, उसे न करना लाभकारी रहता है, क्योंकि एहतियात बरतने से जीवन अक्षुण्ण रहने की गारंटी रहती है। इन कारणों से ‘एकाॅस्टिक्स’ व ‘ऑप्टिक्स’ उनके प्रिय प्रायोगिक विषय बन चुके थे। इनका वे प्रसन्नता से चयन करते थे।
    ऐसा न था कि इन विषयों में वे अगाध पांडित्य रखते होंं। इसके मूल में ‘डार्क रूम’ की प्रेरणा काम करती थी, क्योंकि वहाँ नकल करने की अगाध स्वतंत्रता मिलती थी।  ‘सोडियम लाइट’ के क्षीण-से प्रकाश में वे ‘गैर-डार्क रूम प्रैक्टिकल्स’ के निष्कर्ष भी लिपिबद्ध कर लेते थे। बाहर आकर डंके की चोट पर कहते थे, “मैं अज्ञात वस्तुओं के परिणाम, बिना प्रयोग किए ही चुटकियों में निकालने में समर्थ हूँ। रिफ्रैक्टिव इंडेक्स, बेवलैंथ, स्पेक्ट्रम, बैंडविड्थ, डिफ्रैक्शन, डिस्पर्सन, इंटरफेरेंस, फ्रिंजेज में से जिसका जो चाहे निकलवा सकते हो।”
दूसरे नंबर पर ‘सैक्स्टैंट’ का प्रयोग उनका पसंदीदा प्रयोग होता था। एक तो यह खुल्लम-खुल्ला होता था। दूसरा प्रयोगशाला से बाहर का नीरव वातावरण अनुकूल पड़ता था। तीसरा इंटर्नल व एग्जामिनर की बेधक दृष्टि से बचत रहती थी। 

    वे खुलकर स्वीकारते थे कि जहाँ-जहाँ ‘इंटर्नल’ व ‘एग्जामिनर’ की दृष्टि पड़ती हो, वहाँ-वहाँ उन्हें अपनी प्रतिभा के ‘लाइम-लाइट’ में आने का भय सताता है। वे समर्थ शत्रुओं का मुकाबला करने में असमर्थ थे। चूँकि वे मात्र गुरिल्ला युद्ध-कला में पारंगत थे, आमने-सामने के युद्ध में नहीं।

     पहले वर्ष भाग्य ने उनका साथ न दिया। ‘सिलेंडर का मोमेंट ऑफ इनर्शिया’ निकालना उनके हिस्से आ गया। यह सब काकतालीय-न्याय से घटित हुआ था। पूछताछ करते-करते वे बमुश्किल अपनी टेबल तक पहुँच सके। ‘फ्लाईव्हील’ व ‘सिलिंडर’ से यह इनका प्रथम साक्षात्कार था। अंतरीक्षक व परीक्षक ने इनको उलजलूल हालत में देखा तो बेधक दृष्टि से देखना आरंभ कर दिया। दिखावे के लिए ही सही, कुछ न कुछ तो करना ही था। सो उन्होंने अपनी संपूर्ण शक्ति को संचित किया और फ्लाईव्हील को इतनी जोर से घुमाया, जैसे इंजन को स्टार्ट कर रहे हों। सिलिंडर जोर की ध्वनि करते हुए भूमि पर गिर पड़ा। तत्पश्चात् उन्होंने पहली रीडिंग ली। उनके आगाज और अंदाज को देखकर परीक्षक उनकी टेबल तक आने का साहस न जुटा सके।

कुछ छात्रों की सूचना के अनुसार गुरुजी ‘भुर्ता’ नामक रेसिपी बनाने में परम दक्ष थे. वे यह भी बताते थे कि गुरुजी भूस भरकर ‘टैक्सीडर्मी’ का भी अच्छा शगल रखते हैं.

ध्वनि संबंधी प्रयोगों में भी वे परीक्षक से मुक्ति का उपाय जानते थे। परीक्षक के समीप आते ही कानों में हेड-फोन लगा लेते थे। कुछ अबूझ-सी ध्वनियों को सुनने का उपक्रम-सा करने लगते थे। परीक्षक को घोर उपेक्षा की दृष्टि से देखते थे, जो उन्हें दूर-दूर रखने की शर्तिया गारंटी सिद्ध होता था।

     रसायन शास्त्र के प्रयोगों में मेधावी छात्र लंबे संश्लेषण-विश्लेषण करके ही परिणाम तक पहुँच पाते थे। वे रसायन मिक्सचर के रंग-गंध-स्वाद, तापांतर, रासायनिक क्रियाओं इत्यादि के परिणामों से गुण-धर्म का मिलान करते हुए, परिश्रम से ही निष्कर्ष जान पाते थे। इधर इनका यहाँ भी शार्ट-कट चलता था। प्रयोगशाला सहायक उनके अभिन्न मित्र होते थे। वे उसे जबलपुर से आयातित बीड़ी का उचित और युक्तियुक्त प्रतिफल प्रदान करते थे। फलत: पुड़िया हाथ में ग्रहण करने से पूर्व ही वे मिक्सचर एक्स का नाम, गुण-धर्म मय पूर्ण विवरण जान जाते थे।

    कार्बनिक रसायन के परीक्षा परिणाम में उन्हें इक्यावन अंक मिले। कैंपस में लगभग भूचाल-सा आ गया, चूँकि पूर्णांक पचास अंक का ही होता था। काफी देर तक उन्हें समझ में ही नहीं आया कि उन्हे प्रसन्न होना चाहिए अथवा दु:खी। उस दिन से वे प्रतिदिन परीक्षा-नियंत्रक के सिर पर सवार होने लगे। सवार होकर उसी शैली में सवाल करते थे, जैसे वैताल ने विक्रमार्क से पूछा था, “हे राजन! मैं पास हुआ अथवा फेल।”
इस प्रश्न के जवाब के लिए लंबा पत्राचार चला। लंबे समय के पश्चात् विश्वविद्यालय ने खेद जताया। उन्हें सूचित किया गया कि टाइपराइटर की त्रुटि से आपको ये सुखद अनुभूति देने वाले अंक प्राप्त हुए थे। अब त्रुटि-सुधारकर उस त्रुटि का परिमार्जन कर लिया गया है। उसी टाइपराइटर से आपको शुद्ध पंद्रह अंक सूचित किए जा रहे हैं। सूचना जानें।

    प्रयोगशालाओं का माया-मोह उनका प्रगति-रथ न रोक सका। उस वर्ष प्रवेश के लिए ‘एंट्रेंस’ परीक्षा हुई। एक नंबर के सवाल हल करने में वे मास्टर आदमी थे। उच्चतर कक्षा में रसायन शास्त्र में उन्हें सहजता से प्रवेश मिल गया।

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यह विषय वह माँगता था, जो वे दे नहीं सकते थे- अर्थात् उपस्थिति। इसके बावजूद वे अपनी पूर्ववत् दिनचर्या के अधीन बने रहे। विभाग ने उन्हें सुधारने की भरसक चेष्टा की। सम्यक् अवसर दिए। सुधार न होने की दशा में निष्कासन का भय दिखलाया। इतना हो गुजरने के बाद भी वे अप्रभावित ही रहे।

     एक सुहानी सुबह ये सोकर उठे। विषय परिवर्तन का निश्चय मन में ठान चुके थे। तैयार होकर शहर गए। गणित विषय में दाखिला लिया और प्रयोगों के खटराग को हमेशा के लिए तिलांजलि दे आए। अध्यवसायी तो थे ही। कृषि-पशुपालन के साथ मन लगाकर स्वाध्याय भी करते रहे। यह विषय उनकी दिनचर्या से मेल खाता था।

गाँव के किसानों की उपज मंडी में पहुंचती थी। ग्रामीणों के हितों की रक्षा के लिए वे हिसाब-किताब देखने हर पल मंडी में उपलब्ध मिलते थे। जब वे कभी ना नुकुर करते, तो उनकी माँ कहती थी- तुझे इतना पढ़ा लिखाया। अगर तू छोटे किसानों के हित में नहीं है, उनका हिसाब- किताब नहीं रख सकता तो ऐसी पढ़ाई किस काम की। तू मंडी जाता है कि नहीं…

समय-चक्र चलता रहा। अंतिम परीक्षा परिणाम निकल चुका था। अंकतालिका लेकर वे घर पहुँचे। अंकतालिका आँगन में रखकर हाथ-मुँह धोया। तत्पश्चात् ये गाँव की एक वृद्धा को दवा पहुँचाने चले गए। वापसी में आकर देखा तो गाय उनकी अंकतालिका को चबा रही थी। लपककर बचा-खुचा हिस्सा उन्होंने गाय के मुँह से छुड़ाया। गाय ने ना-नुकुर की। शेष हिस्सा जो हाथ में आया, वह हिस्सा था जिसमें सहायक कुलसचिव के हस्ताक्षर थे। गाय अंको की जुगाली बड़ी तन्मयता से कर रही थी। गाय को संभवत: अपने मालिक के अंको ने चबाने को प्रेरित किया था। उस वर्ष इन्हें विश्वविद्यालय में पोजीशन मिली थी।

इसके अलावा वे दोस्तों के कैरियर संबंधी मामलों में पंचायत भी कर लेते थे। उनके एक मेधावी मित्र थे। वे दो वर्ष देश के किसी  प्रमुख महानगर में रहकर प्रतिष्ठित परीक्षा में बैठना चाहते थे। उनके पिता ने अपनी सामर्थ्य से बढ़-चढ़कर इमदाद भी दी। किसी जटिल माने जाने वाले विषय में उसे उस परीक्षा में शून्य अंक मिला। यह शून्य अंक उसके पिता को आजीवन सालता रहा। आरंभ में तो पिता ने यही निष्कर्ष दिया कि, “भला शून्य क्यों मिलेगा। इसने परीक्षा में कुछ लिखा ही नहीं होगा। इसने जानबूझकर पन्ने कोरे छोड़ दिए होंगे। इसका स्वभाव ही ऐसा है। इसने जानबूझकर कुछ नहीं लिखा होगा, क्योंकि यह तो मेरी छाती पर मूंग दलने को पैदा हुआ है।”

   पुत्र को देखते ही वे लाठी उठा लेते थे। किसी प्रकार पूरी ताकत से दौड़कर वह सुरक्षित दूरी तक पहुँच पाता था। तब जाकर पिता के कोप से अपनी प्राणरक्षा कर पाता। पिता के परिवर्तित व्यवहार से वह भयभीत तो कम था, खिन्न अधिक था। उसने मित्रों से सहायता की याचना की। उन्हें दूत बनाकर पिता के पास भेजना चाहा। तो इन्होंने कहा- “यार! उनसे कहूँगा क्या? अगर पूछ लिया का दो साल रहकर भी अंडा क्यों मिला तो मैं क्या उत्तर दूँगा?”  
फिर भी वे मित्र के घर गए। उसके पिता की अनुनय-विनय की। कुपित पिता की अभ्यर्थना की। उन्हें मानविकी व अमानविकी विषयों के स्कोरिंग पैटर्न का रहस्य समझाया। गावस्कर व कपिल देव के बल्लेबाजी पैटर्न का दृष्टांत भी दिया। अंत में यह कहकर भी मनाया कि, “अमानविकी विषयों के अंक यदाकदा अमानवीय स्थिति उत्पन्न कर देते हैं। अब उसे माफ कर दो चाचा।”

यह कहानी गुरु शिष्य परंपरा पर आधारित है, जब उस दौर में शारीरिक दंड को शिक्षा प्रणाली का अनिवार्य अंग मानने की प्रथा थी.

इस शास्त्रीय बहस के आयोजन से कुछ उम्मीद सी बँधी। हालाँकि बाद में ज्ञात हुआ कि पिता-पुत्र के आंतरिक संबंधों में कोई सुधार नहीं आया। बाद के वर्षों में वह उच्च पद पर भी आसीन हो चुका था। तब भी उसके पिता उसके शून्य अंक के परिणाम के प्रति संदेहशील बने रहे।

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