कुछ छात्रों की सूचना के अनुसार गुरुजी ‘भुर्ता’ नामक रेसिपी बनाने में परम दक्ष थे. वे यह भी बताते थे कि गुरुजी भूस भरकर ‘टैक्सीडर्मी’ का भी अच्छा शगल रखते हैं.

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चार-पाँच दशक पहले अधिकांश भारत गाँवों में बसता था। साधन कम होने के बावजूद लोगों में खुशहाली का भाव रहता था। निश्छल स्कूली बच्चे भोली शरारती करते थे। गुरु समर्पण भाव से बच्चों के भविष्य निर्माण में जुटे रहते थे।

सांकेतिक फोटो साभार सोशल मीडिया


कुंभ और कुम्हार: दो
उन्हें गाने की आदत है और शौके-इबादत भी।
दुआएँ निकलती हैं उनके मुँह से ठुमरिया बनकर॥
यह महाकवि अकबर इलाहाबादी का शेर है। इस शेर को पढ़कर शेक्सपियर के ‘कॉमेडी ऑफ एरर्स’ का स्मरण हो आता है।

कक्षा में आते ही गुरुजी पुनरावलोकन का कार्य निर्दिष्ट कर देते थे अर्थात् पाठ रटने को कह देते थे। पाठ को कंठस्थ करने के बजाए कंठाग्र रखने का प्रबल आग्रह रहता था।
कंठस्थ और कंठाग्र, दोनों स्थितियों में सूक्ष्म-सा भेद है। कंठाग्र रखने में अभ्यास मात्र ही सर्वसिद्ध होता है। चिंतन-मनन गौण तत्त्व रहते हैं। कुछ लोग तो चिंतन-मनन को गैरजरूरी भी मान लेते थे। कंठाग्र अर्थात् ज्ञान को कंठ के अग्रभाग पर लिए-लिए फिरना। यह शिक्षण पद्धति सोद्देश्य थी– पूछते ही बालक सटासट-सटासट जवाब देता चला जाए। बस स्टार्ट भर करने की देर हो।
कुंजी-गाइडनुमा पुस्तकों से गुरुजी नैसर्गिक शत्रुता रखते थे। परीक्षोपयोगी पुस्तकों पर दृष्टिपात होते ही वे आपादमस्तक काँपने लगते थे। फिर वही मुद्रा अख्तियार कर लेते, जो नेवला सर्प को देखकर अपनाता है। कुछ छात्रों की सूचना के अनुसार गुरुजी ‘भुर्ता’ नामक रेसिपी बनाने में परम दक्ष थे। वे यह भी बताते थे कि गुरुजी भूस भरकर ‘टैक्सीडर्मी’ का भी अच्छा शगल रखते हैं। ‘टैक्सीडर्मी’ चर्मवाले मृत प्राणियों को सुरक्षित रखने तथा उन्हें जीवित सदृश व्यवस्थित कर प्रदर्शित करने की एक विधि है। संक्षेप में वे कचूमर निकालने में सिद्धहस्त थे।

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संस्कृत शिक्षक होने के नाते वे इस गूढ़ तत्त्व को भली-भाँति जानते थे कि “शरीर की टूट-फूट से आत्मा का किसी प्रकार हनन नहीं होता है।”
उनकी कक्षा आरंभ होने से पूर्व बालकों का एक अग्रिम दस्ता उन पर निगाह रखता था। उनकी ‘टाइमिंग व मूड’ की टोह लेता फिरता था। सन्नद्ध रहकर लेटेस्ट जानकारी जुटाता था। दस्ते में धावक दल के छँँटे- छटाए सदस्य रहते थे। गुरुजी के कक्षा में आगमन से पूर्व धावक दल का एक सदस्य सनसनाते हुए तीर की गति से कक्षा में आ पहुँचता। वह यवन प्रहरियों के स्वर में सहपाठियों को सचेत कर अपना स्थान ग्रहण कर लेता था, अर्थात् टाट-पट्टी में आलथी-पालथी मारकर बैठ जाता था।

हमारा एक सहपाठी था, संजय। वह तीक्ष्ण-बुद्धि व सचित्र-स्मृति का स्वामी था। प्रथम वाचन में ही वह पाठ को कंठाग्र कर लेता था। पाठ याद होते ही वह खुशी से नाचने लगता था, कक्षा में स्वच्छंद गति से विचरने लगता था। उसमें एक गुण था- वह किसी भी जीवित प्राणी के हाव-भाव-भंगिमा, स्वर-ध्वनि को समरुप दोहरा लेने में विलक्षण था।

पाठशाला की खिड़की से समकोण की दिशा में एक गौशाला थी, जो खिड़की से कुछ हाथ की दूरी पर थी। गौशाला के खूँटे से यम के वाहन ‘महिष महाराज’ बँधे रहते थे।

एक दिन खिड़की से झाँकते हुए संजय ने महिषी के स्वर का विलंबित लय में आलाप लिया। स्वर-साधकों में यह अद्भुत गुण बताया जाता है कि वे अपने प्रतिद्वंद्वी का स्वर सहज ही जाग्रत कर लेते हैं। इस प्रकार उसनें एक-दो आलाप लेकर महिष का प्रतिस्वर जाग्रत कर लिया। महिष की राग-रागनियाँ सुनकर महिष स्वामी गौशाला में पहुँचे। उसने इसे सानी-पानी की पुकार के अर्थ में ग्रहण किया था। अत: उसने महिष देवता की चारा-पानी से सेवा की। तदुपरांत वह गौशाला से निकला और अपनी खेती-बाड़ी में लग गया।
इधर स्वर साधक ने मौका देखा और पुन: महिषी-स्वर में आलाप छेड़ा। इस बार आलाप विलंबित छोड़ द्रुत में लिया गया था। महिष देवता भी कहाँ पीछे रहने वाले थे। उन्होंने भी प्रतिस्वर में प्रतिवाद किया। भरपूर जुगलबंदी की। बच्चे पाठशाला की खिड़कियों से लटके हुए थे और गौशाला को साँसें थामे घूर रहे थे। एकटक कान लगाकर राग-रागिनियों के गूढ़ार्थ समझ रहे थे। इस प्रकार मेगा अंत्याक्षरी का लाइव आनंद उठा रहे थे।  
उधर महिषस्वामी ने फिर से महिष की कातर पुकार सुनी। वह अपना काम छोड़कर तत्काल गौशाला की ओर रवाना हुआ। इस अवसर पर उसके हाथ में एक मोटा सा डंडा था। महिष के अकारण आह्वान का रहस्य उस बेचारे को मालूम न चल सका। ‘अभी-अभी सानी-पानी किया है। घड़ी-घड़ी पुकार मचाए हुए हैं। ज्यादा ही मुँहलगा हो गया है।’ कहकर वह महिष की मरम्मत कर आया।

सांकेतिक फोटो साभार सोशल मीडिया

कौवै से अंत्याक्षरी का भी उसे प्रगट अनुभव था। यह दीगर बात है कि उस कौवे ने चार महीने तक लगातार उसको रिट्वीट किया था। वह खेतों में रहा हो चाहे पशुचारण में, कौआ उसका इतना बड़ा फैन हो चुका था कि कुँए से पानी भरने तक उसको   फॉलो किया करता था।
संजय छुट्टियों में ननिहाल गया हुआ था। उस प्रदेश में आकाशगमन करते हुए काकभुशुंडी नें अपनी बोली के जानकार का त्वरित अभिज्ञान कर लिया। इतना ही नहीं उसके शीश को चोंच से स्पर्श करके आशीष भी दिया।
कौवे के उसके प्रेम में पड़ने का कारण कोई बड़ा कारण नहीं था। उसने तो बस इतना ही किया था कि कौवे के घोंसले तक जाकर एक बार उसके नन्हे-मुन्नों से लाड़-प्यार जता आया था।
एक दिन कक्षा में आते ही गुरुजी ने पाठ याद करने को कहा। वैसे उनका यह रोज का क्रम रहता था। तत्पश्चात् वे कुर्सी पर विराजमान हो जाते थे। कुर्सी मध्यकालीन थी। विद्यालय में आगमन से पूर्व वह किसी सरपंच के दीवाने-खास की शोभा बढ़ाती थी। कुर्सी बिना हत्थे की और भारी लकड़ी की बनी  थी। अतः कुर्सी में बैठने वाले तो गिर सकते थे, कुर्सी नहीं गिर सकती थी। इसलिए इसमें संयम से संतुलन साधकर ही बैठा जा सकता था। गुरुजी कुर्सी में आराम से बैठे थे। बच्चे भ्रमर गुंजन स्वर में पाठ याद कर रहे थे। इस स्वर को सुनते ही गुरुजी ऊँघने लगे। क्रमश: वे ट्रेन की खिड़की वाली सीट पर बैठे यात्री की तरह निश्चिंत होकर सो गए।

अपेक्षानुरूप संजय ने पाठ प्रथम वाचन में ही  कंठाग्र कर लिया। आज के पाठ में चाणक्य नीति के श्लोक याद करने थे। उसे आपात स्थिति का भी भान था। अतः उसने सुरक्षा की दृष्टि से सरसरी तौर पर द्वितीय वाचन भी किया। कक्षा के शेष विद्यार्थी गुन-गुन, गुन-गुन के स्वर में श्लोकों का पारायण कर रहे थे।

वह अपना काम करके स्वच्छंद गति को प्राप्त हो गया। उसने कक्षा के मनोरंजन के लिए एक निर्णय लिया- वह चोरों की तरह दबे पाँव गया और गुरुजी के स्थान पर पहुँच गया। प्रथम प्रस्तुति में उसने मूक अभिनय पद्धति से अपनी कला की प्रस्तुति दी। ऑडियंस कला की गूढ़ता व अर्थवेत्ता को समभाव से ग्रहण कर रही थी। लाचारी में नि:शब्द ही भाव-विभोर हो रही थी।

कलाकार ‘हिम्मत बहादुर’ तो था ही। अतः उसने गुरुजी के पास खड़े होकर ‘डीफ एंड डंब’ शैली में उस स्थल के समाचार प्रसारित किए। समाचारों की अंतिम किश्त के रूप में मौसम का हाल भी श्रोताओं को सुनाया। बीच-बीच में सतर्कता भी बरत रहा था। इस कड़ी में वह गुरुजी के मुख पर कनखियों से दृष्टिपात कर लेता था।
वह दो श्रेष्ठ प्रस्तुतियाँ दे चुका था। तदुपरांत वह सुषुप्त गुरु जी से रूबरू हो गया। उसने ऐसी मुद्रा ग्रहण कर ली, जो क्रिकेट के खेल में लेग अंपायर रनआउट के नि:संदिग्ध परिणाम का आकलन करने के लिए अपनाते हैं।  वह कमर थोड़ी-सी झुकाकर उकड़ूँ हो गया। दोनों हाथ दोनों घुटनों पर स्थापित किए हुए थे। इस हृदयग्राही मुद्रा में वह निंद्राधीन गुरु की मुख-शोभा नीहारने लगा। क्रमशः जानु पर कोहनी व हथेली पर ठुड्डी टिकाकर वह ‘हाई रिजॉल्यूशन मोड’ में आ गया और गुरुजी की मुखाकृति पढ़ने की चेष्टा करने लगा। संक्षेप में वह नाना प्रकार से ऑडियंस का नि:शब्द मनोरंजन कर रहा था।

अकस्मात् गुरु ने निद्रालसित नेत्रों से अपने पट्टशिष्य को सम्मुख पाया। या यूँ कहें कि शिष्य के नेत्रों को अपने नेत्रों से कुछ सेंटीमीटर की दूरी पर प्राप्त कर लिया।

सांकेतिक फोटो साभार सोशल मीडिया

कलाकार को न तो पलायन का अवसर मिला, न ही बचाव का कोई उपाय सूझा। वह भौचक से मुँह बाए खड़ा था। दया याचिका योजित करने की तो वह सोच भी नहीं सकता था। ऑडियंस सन्नाटे में थी। उनका वालंटियर आर्टिस्ट कुछ ही पलों में शहीद होने वाला था। अतः वह भी परिस्थितियों से उत्पन्न भ्रांति के भ्रांतिमार्जन को अनिच्छुक-सी दिखी। गुरुजी ने दाहिना हाथ लंबा करके उसका समीप आने के लिए आह्वान किया।

गुरु ने संक्षिप्त-सी पृच्छा की। मात्र दो सवाल पूछे।
प्रश्न संख्या एक:- इस विशेष मुद्रा में कर्तव्यारुढ़ होने का रहस्य।
प्रश्न संख्या दो:- इस अभिसंधि में सम्मिलित शत्रुओं के नाम एवं कुलवंश का संक्षिप्त विवरण।

उत्तरदाता कलाकार था। शहीदाना मुद्रा उसकी प्रिय मुद्रा थी। हिम्मत बहादुर तो वह था ही। अतः उसने अपने कोमल व सवाक कंठ से स्वीकरण कर लिय- “मैंने स्वेच्छा से दैन्य और दुःख का यह मार्ग अंगीकार किया है।”

फिल्म शर्मीली के गीत गीतकार नीरज ने लिखे थे। उस फिल्म में एक लोकप्रिय गीत था। ‘रोम-रोम बसे सुर धारा, अंग-अंग बजे शहनाई।’ हालांकि इस गीत के माध्यम से सिनेमा में संयोग श्रृंगार के पक्ष में भाव व्यक्त किया गया था। हमारी कक्षा में इसकी विपरीतार्थक व्यंजना प्रकट हुई। ऐसा भावप्रवण दृश्य बना कि अन्य सिहर उठे।

गुरुजी ने पट्टशिष्य को वायुमंडल के ट्रॉपोस्फीयर की निःःशुल्क सैर कराई। उससे वहाँ के मौसम का हाल जानने को कहा गया।

गुरुजी की यह विशेष अदा थी। वे ट्रॉपोस्फीयर से समभूमि पर आने के लिए सवार को गुरुत्व बल की सुपुर्दगी में दे देते थे।

राष्ट्रीय पर्वों पर गुरुजी अत्यंत सक्रिय हो उठते थे। मंच का समस्त दायित्व वे ही संभालते थे। हिंदी-संस्कृत के ऐतिहासिक नाटकों का मंचन कराते थे। मंचन से पूर्व कई-कई बार रिहर्सल कराते थे। त्रुटिरहित प्रस्तुति तक रिहर्सल कराते रहते थे।

तब मैं अल्पवय का था। स्वर भी कोमल ही था। इस दृष्टि से ऐतिहासिक नारी पात्रों के अभिनय के लिए उन्होंने मुझे चुना।

इधर मेरा जन्म पुंजातीय परंपरा में हुआ था। शायद पुरुष होने का छोटा-मोटा अभिमान रहा होगा। अंतर्मन से मैं चंद्रगुप्त, सिकंदर सिंहरण के पात्रों का अभिनय करने को तैयार था। मरी-गिरि हालत में अमीर तैमूर का सिपहसालार हिंदूबेग बनने को भी तैयार था। बनवीर जैसे खलचरित्र का पार्ट भी कर सकता था। बदतर हालत में ग्रामणी व शक-यवन सैनिक का रोल भी कर लेता।

लेकिन नारी पात्रों के अभिनय पर संकोच-सा रहता था। एक बार जिस छवि में फिट हो गए, सहपाठी उसी उपनाम से पुकार-पुकार कर चिढ़ाते फिरेंगे। अतः मैने अत्यंत विनय के साथ अभिनय कला में असमर्थता प्रकट की। अज्ञान के लिए गुरु से क्षमा मांगी। ये सब कैफियत देने के बाद भी वे न पसीजे। फलस्वरुप ट्रॉपोस्फीयर की निःशुल्क सैर व गुरुत्व बल के अधीन अवतरण करना पड़ा। द्रुत व विलंबित लय में रुदन भी करना पड़ा। हालांकि उनके पुनः सैर के प्रस्ताव पर मैं मूक रुदन में आ गया।
इस घटना से मन उचाट-सा हो गया। सांस्कृतिक कार्यक्रमों से मन विरक्त सा रहने लगा। हालांकि गुरुत्व बल से जनित पीड़ा रह- रहकर याद आती थी। इसी भय से जयशंकर प्रसाद व डॉक्टर रामकुमार वर्मा के प्रमुख नारी पात्रों की स्क्रिप्ट मुझे ही याद करनी पड़ी थी। ध्रुवस्वामिनी, मालविका, अलका, मधुलिका, कल्याणी इत्यादि पात्रों की संवाद-अदायगी व अभिनय-कर्म बुझे मन से मुझे ही संपन्न करने पड़े। गुरु जी को गुरुत्व बल की सार्थकता पर न्यूटन से अधिक विश्वास था।

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