(पढ़ें कहानी) तत्कालीन कालखंड में हमारे अंचल में गणित विषय का हाहाकार मचा रहता था, प्रथम प्रयास में मैट्रिकुलेशन परीक्षा पास करना दुर्लभ समाचार होता था..

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स्कूली शिक्षा में तब गणित का भय बहुत सताता था। एक समूची पीढ़ी इस भय से त्रस्त रही। बेचारे लड़के, विषय से पार पाने के लिए कैसे-कैसे मंसूबे पालते थे, कैसे-कैसे हथकंडे आजमाते थे।

‘गणित में विद्यार्थियों का हाथ तंग है।’ अक्सर सुनने को मिलता था। गणित-फोबिया से कई छात्र पीड़ित थे। तत्कालीन कालखंड में हमारे अंचल में गणित विषय का हाहाकार मचा रहता था। प्रथम प्रयास में मैट्रिकुलेशन परीक्षा पास करना दुर्लभ समाचार होता था। प्रथम प्रयास में इस परीक्षा को उत्तीर्ण करना अभीष्ट भी नहीं माना जाता था। तीसरे से पाँचवें प्रयास तक को सहजता से लिया जाता था। प्रयासों की संख्या कितनी भी हो जाए, पास होना महत्त्व रखता था। पाँचवें प्रयास तक भी पास होने के लिए उपयुक्त निगरानी व मार्गदर्शन की जरूरत महसूस की जाती थी।

सांकेतिक चित्र साभार सोशल मीडिया

      ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में ‘मैट्रिकुलेशन’ शब्द की मीनिंग ”रजिस्टर’ दी गई है। इसमें स्पष्ट किया गया है कि पाश्चात्य शिक्षा- व्यवस्था में इस परीक्षा के अंक रजिस्टर में इंद्राज किए जाते हैं। इसके अंक रजिस्टर में ‘एंट्री’ किए जाने से ही इसे ‘मैट्रिकुलेशन’ कहा जाता है।

     प्राच्य विद्वान पी. एन. ओक इस धारणा का खंडन करते हैं। उनका दृढ़ मत है कि रजिस्टर में तो अन्य परीक्षाओं के अंकों की एंट्री भी की जाती है। ‘गजट’ भी तो रजिस्टर ही है। इस हिसाब से तो सारी-की-सारी परीक्षाएँ मैट्रिकुलेशन कहलानी चाहिए।

   उनका मत है कि ‘मैट्रिकुलेशन’ शब्द प्राचीन संस्कृत शब्द ‘मातृकुलीनेषु’ का पाश्चात्य संस्करण है। इस परीक्षा को उत्तीर्ण करने के बाद शिक्षार्थी को उच्चतर शिक्षा प्राप्त करनी होती थी। इस उद्देश्य से उसे ‘मातृकुल’ से दूर जाना पड़ता था।

    ज्योमिट्री की क्लास थी। वृत्त का आरेख खींचने को कहा गया। मैं भी आरेख खींच रहा था। आरेखण की प्रक्रिया में कंपास बार-बार फिसलता जा रहा था, चूँकि ज्योमिट्री पेपर स्निग्ध (चिकना) था। अतः मैने कंपास को दबाया और ज्योमिट्री पेपर को घुमाकर आरेख खींच लिया। यह जुगत प्रक्रिया को सुकर बनाने के उद्देश्य से की गई थी। आरेखण के इस दुर्लभ-प्रदर्शन को संभवतः गुरुजी ने भी देख लिया।

     उन्होंने पीछे से आकर धौल जमाई और मुझे धराशायी कर दिया। मैं बड़े कष्ट में उठा। तो उन्होंने दूषित तरीका अपनाने का कारण पूछा।

हमने भी भोलेपन में कह डाला- “बन तो गया है गुरु जी। आम खाने से मतलब होना चाहिए। पेड़ गिनने से क्या होगा।”

सांकेतिक चित्र साभार सोशल मीडिया

प्रकारांतर से हमने साध्य पा लेने की धौंस दिखायी और साधन की पवित्रता-अपवित्रता के फेर में न पड़ने की दुहाई दी। गुरु तो गुरु ही होता है। उन्होंने हमें दीवार के सामने खड़ा कर दिया और आदेश दिया-
“इस दीवार पर सर्कल का आरेख खींचकर दिखाओ। दीवार घुमाकर खींचो। याद रहे, कंपास नहीं घूमना चाहिए।”
उसके बाद उन्होंने जो किया वह वर्णनातीत है।

     वे ज्यामितीय तरीके से साठ अंश, पैंतालीस अंश, साढ़े बाईस अंश के कोणों का अभ्यास कराते थे। छोटे डिनोंमिनेटर्स के कोणों का अधिकाधिक अभ्यास कराते थे। फोबियाग्रस्त विद्यार्थी बहुतायत में थे। लड़कों की क्या बिसात। मुंशी प्रेमचंद जी तक को गणित हिमालय-सी ऊँचाई का लगता था।

     हमारे एक सहपाठी अग्रज थे। स्कूल और घर दोनों जगहों पर वे इस विषय के सताए हुए थे। एक दिन उनके फूफाजी उनके घर आए हुए थे। तब रिश्तेदार भी आते ही गणित के सवाल पूछते थे। तो फूफा जी ने उन्हें ‘मल्टीप्लीकेशन’ का सवाल हल करने को दे दिया। भाई ने सवाल पर निगाह डाले बिना ही हथियार डाल दिए। लानत-मलानत सुनकर वह हाँफते हुए बाहर आए। मित्रों को आपबीती सुनाने लगे,-” यार! फूफाजी ने एक सवाल की ‘मट्टी पलीद’ करने को क्या दी, हमारी खुद की ‘मट्टीपलीद’ हो गई।”

     हालांकि लॉन्ग जंप में इनका प्रदर्शन उत्कृष्ट रहता था। एक बार लॉन्ग जंप की प्रैक्टिस चल रही थी। वे कूदने के लिए खोदे गए अधिकतम स्ट्रेच मार्क से बाहर अर्थात् साढ़े तेईस फीट कूदकर फ्रैक्चर करवा बैठे थे। तत्समय उत्तर प्रदेश का स्टेट रिकॉर्ड चौबीस फीट था।

       गुरुजी कक्षा में वृक्ष का समूल तना लेकर आते थे, जिसका वे शस्त्र के रूप में सफल प्रयोग करते थे। उनके शस्त्र को देखकर लगता था कि इससे तो दुर्ग-द्वार भी आसानी से ढ़हाया जा सकता है। उनके दर्शन होते ही त्रेता युग की याद सताने लगती थी। किष्किंधा के दंडधरों के हाथों में यही शस्त्र तो रहा करता था, जिससे वे लंका के परकोटे तोड़ने में सफल हो पाते थे।

छात्र डरे-सहमे-से रहते थे। उनमें यह भय व्याप्त था कि कहीं पाठ्यक्रम समाप्ति से पूर्व गुरुजी हमें ही समाप्त न कर दें।

     साप्ताहिक टेस्ट लिए जाते थे। परिणाम में कमतर प्रदर्शन वालों को वे पूरी ताकत से बाहर फेंक देते थे। कक्षा में एक ‘असवाल सरनेम’ वाले सहपाठी भी थे। उनका हाथ अक्सर तंग ही रहता था। वे अक्सर फेंके जाते थे। उसको फेंकते समय गुरुजी यह कथन अवश्य दोहराते थे-
“तुम्हारा तो सरनेम ही असवाल है। वह इसलिए है क्योंकि तुमको सवाल तो आते ही नहीं।”

वे प्रायः छात्र को बस्ता-बही सहित उठाकर पलायन वेग से फेंक देते थे। प्रक्षेपण-यान व मानव-शरीर की सीमा-सामर्थ्य में व्यापक अंतर बताया जाता है। इस अंतर से गुरुजी की इच्छा पूरी नहीं हो पाती थी। उनका प्रक्षेपित शिष्य केले की सघन वृक्षों की जद तक ही पहुँच पाता था। यह कदली वन वहाँ पर था, जहाँ पर स्कूल की सीमा समाप्त होती थी। वे स्थानच्युत शिष्य को उच्च स्वर में आदेश देते थे। उन्हें वहीं निर्मेय की रचना व प्रमेय का अभ्यास करने को कहते थे। कदली वन के अभ्यासी छात्रों मे से कुछ गणित में मेधावी होकर निकले, जिनमें से कुछ गणित के योग्यतम शिक्षकों में लब्धप्रतिष्ठ हुए तो कुछ लोक सेवाओं में भी चुन लिए गए।  

      अर्द्ध वार्षिक परीक्षाओं के बाद कक्षा में कापियाँ दिखाई जाती थी अर्थात् छात्रों का प्रदर्शन दिखाए जाने की प्रथा थी। अधिक स्पष्ट शब्दों में कहें तो ‘आइना दिखाने’ का चलन था। हमारे एक सहपाठी थे, जो कक्षा में एक दुर्लभ आसन में विराजते थे। वे बिना हत्थे की कुर्सी पर, कुर्सी की पीठ से वक्ष सटाकर व उसके ऊपर चिबुक टिकाकर बैठते थे। छमाही इम्तिहान में इस दुर्लभ आसन वाले सहपाठी का प्राप्तांक सौ में से चार अंक था।  इन अंकों को देखकर अकस्मात् उसे पितृ-स्नेह का स्मरण हो आया । उसे यकीन था कि इन नंबरों को देखकर बापू बहुत कूटेगा। फिर किसी अज्ञात प्रेरणा ने उसे ढ़ाढ़स बँधाया।

सांकेतिक चित्र साभार सोशल मीडिया

उसने लाल रोशनाई से एक रचनात्मक कार्य करने की ठान ली। कॉपी के शीर्ष पर ‘चार’ अंक के सम्मुख ‘एक और चार’ टिका दिया। वैसे तो यह एक साहसिक कृत्य था, पर इस रहस्य को उसने रहस्य ही रहने दिया।

     इन अंको की ब्रॉड-शीट में एंट्री की जाती है। उस अवसर पर गुरुजी ने अपनी स्मरण-शक्ति पर सारा जोर लगा डाला, तो भी उनके स्मृति-कोष ने उन्हें सूचना दी कि- “उन्होंने उच्चतम स्कोर चालीस तक ही तो नंबर लुटाए हैं। फिर ये चवालीस का चमत्कार कैसे संभव हो सकता है।”
इस झोल को वे कुछ-कुछ समझ चुके थे। उन्होंने कॉपी की पुन: संवीक्षा की। कूटरचना का अनावरण हो चुका था। इस उद्विग्नता में उन्हें रात भर नींद नहीं आई।

     अगले दिन असेंबली हो चुकी थी। दुर्लभ आसन वाले शिष्य कक्षा की ओर जा रहे थे। सहसा उसने अपने हाथ में एक फंदा-सा महसूस किया। वह रुका, मुड़ा, मुड़कर देखा तो गुरुजी उसका पाणिग्रहण चुके थे अर्थात् उसे खींचते हुए प्राचार्य कक्ष की ओर ले जा रहे थे। जल्दी-जल्दी सीढ़ियाँ चढ़कर वे प्राचार्य कक्ष के दरवाजे से अलक्षित हो गए। भीतर प्राचार्य उनकी व्यग्रता से प्रतीक्षा कर रहे थे।
प्राचार्य ने उससे बड़े प्रेम से पूछा, “घबराने की कोई बात नहीं है। अपने मतलब के लिए तो क्या-क्या नहीं करना पड़ता। जरा बताओ तो तुमने कैसे किया था।”

वह सटासट-सटासट अपनी कार्रवाई का सारांश बता गया। गुरुजी की विजयी मुस्कुराहट प्राचार्य की सूझ-बूझ की प्रशंसा कर रही थी। संक्षिप्त अभियोग चला। ‘समरी ट्रायल’ टाइप का। उसके पश्चात् जूरी ने छापामार युद्ध संहिता का पैंतरा अपनाया। संयुक्त आक्रमण कर शत्रु को धराशायी किया जा चुका था।

वैद्य नें उसे सप्ताह भर का विश्राम सुझाया। औषध-पथ्य का नियमित सेवन कराया। अगले सप्ताह सहपाठी पुनः अपने दुर्लभ आसन पर विराजे हुए थे।

सांकेतिक चित्र साभार सोशल मीडिया

     किसी छोटी कक्षा में तो इससे भी बड़ा चमत्कार हुआ। यह ‘दुर्लभ में दुर्लभतम्’ टाइप का मामला था। किसी छात्र का प्राप्तांक सौ में से एक अंक आया। पितृ-स्नेह का स्मरण होने पर उसने दाईं ओर एक शून्य बढ़ा दिया। तभी उसके हितेषी ने उसे समझाया, “जुर्म करने पर भी ये मार्क्स, पासिंग मार्क्स नहीं बने हैं।”
इन वचनों को सुनकर उसकी चेतना लौट आई और दिमाग की बत्ती जल गई। कहने का मतलब है कि उसे नितांत कलात्मक प्रयोग करने के लिए प्रेरित कर दिया। अतः उसने एक ही झटके में एक और शून्य बना लिया। इस प्रकार एक नवीन कीर्तिमान स्थापित हो गया। सौ में से पूरे सौ हो गए।

‘बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी।’ उसकी बात भी बहुत दूर तक गयी। अत: अगले दिन उसका अभियोग फुल बेंच के द्वारा सुना गया। सूत्रों के अनुसार उसे बारी-बारी से धोया गया। वहाँ से जब वह कक्षा में लौटा, तो ऐसे प्रतीत हो रहा था, मानो चौदहवीं शताब्दी का हो और अभी-अभी उत्खनन में प्राप्त हुआ हो।

    गणित को भाषा में भी उच्च स्थान प्राप्त है। सद्भावना में एक और एक ग्यारह, दिन दूनी रात चौगुनी, चौदहवीं का चाँद का प्रयोग सुनने को मिलता है। विपरीतार्थक फेहरिस्त ज्यादा लंबी है। नौ दो ग्यारह होना, तीन में न तेरह में, तिया-पाँचा करना, छत्तीस का आंकड़ा, दो और दो पाँच करना, आठ- आठ आँसू रोना व निन्यानबे के फेर में बहुश्रुत उदाहरण है।

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