कल्पनाओं के सागर में घूम रही हूँ मैं,
आज़ भी खुद को ढूंढ रही हूँ मैं.
ना समझी मैं रंग रूप को,
ना मैं समझी जात-पात को,
ना ही समझी पुरुष वाद को,
जीवन की इन पहेलियों में खो रही हूँ मैं,
आज़ भी खुद को ढूंढ रही हूँ मैं.
कभी कहा मुझे बेटी, कि घर की लाज़ बचाना है,
कभी कहा मुझे पत्नी, की हर फर्ज़ निभाना है,
माँ का भी दर्ज़ा दिया, पर ख्वाईशों को त्यागना है,
अपने अस्तित्व के लिए लड़ रही हूँ मैं,
आज़ भी खुद को ढूंढ रही हूँ मैं.
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