ये कहानी उस दौर के दूरदराज के स्कूल की है, जब आज की तरह साधन मौजूद नहीं थे..

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ये कहानी उस दौर के दूरदराज के स्कूल की है, जब आज की तरह साधन मौजूद नहीं थे। सीमित साधनों के उस दौर में गुरु समर्पित भाव से शिक्षण-कार्य करते थे, समाज को सही दिशा देते थे। एक समूची पीढ़ी ने उस दौर को बहुत करीब से देखा है।

चरित्र-निर्माता……..

उन दिनों पाठशाला में विद्यार्थी का प्रवेश उसकी वय के विषम वर्षों में कराने का चलन था। पाँचवे में चूक गए, तो सातवें में नंबर आ पाता था। एक वर्ष की बाध्य-प्रतीक्षा। प्रवेश का दिन पुरोहित से दिखाकर तय होता था। दिन, मुहूर्त-विचार करके छाँटा जाता था। बटुक को पीतवर्णी परिधान पहनाया जाते थे।

बच्चा अभिभावक की अंगुली पकड़े पाँव-पैदल पाठशाला पहुँचता था। बड़े सहोदरों के अनुभव सुन-सुनकर डरा-डरा-सा। मास्टर साहब नव प्रवेशी छात्र को मिट्टी छानने को दे देते थे। धीमी गति से तख़्ती हिलाने से मिट्टी के बड़े-बड़े कण छँटकर किनारे हो जाते थे। बची मिट्टी की महीन परत को तख़्ती के ऊपर करीने से सजाया जाता था। यह सब वह अभिभावक की मदद से ही कर पाता था।

आसन शुद्धि के बाद मास्टर साहब बच्चे की तर्जनी पकड़ लेते थे। मिट्टी पर तर्जनी से अक्षर उकेरे जाते थे–ऊँ न म सि ध म्। बच्चे की तर्जनी मास्टर जी के नियंत्रण में चलती थी। हालांकि वह बार-बार इधर से उधर भागने की चेष्टा करती थी। मास्टर जी इन स्टेप्स के प्रति सजग रहते थे, जिस प्रकार मोटर ड्राइविंग स्कूल के इंस्ट्रक्टर स्टेयरिंग पकड़कर ड्राइविंग सिखलाते हैं। प्रथम बार अक्षर लिखने पर हर्ष मनाया जाता था। इस उपलक्ष्य में मिष्ठान्न वितरण तो बनता ही था। सभी बच्चों को ‘गुड़ की भेली’ बाँटी जाती थी। उस दौर में, उस क्षेत्र में मिष्ठान्न का आशय गुड़ की भेली से ही रहता था।

कुछ दिनों तक यही अभ्यास दोहराया जाता था। कुछ बच्चे इसमें ना-नुकुर भी करते थे, जो प्राय: घर के बड़े-बुजुर्गों के लाड़-प्यार में थोड़े अवज्ञाकारी-से हुए रहते थे। ऐसे बच्चों की तर्जनी रगड़कर अभ्यास कराया जाता था। अंगुली घर्षण से अंगुली ज्वलनशील हो जाती थी। इस भय से शिक्षार्थी आज्ञा मानकर स्वत: स्फूर्त ढंग से लिखने लगता था। इस प्रकार वह कुछ ही दिनों में ऊँ न म सि ध म् लिखने में पारंगत हो जाता था।

वस्तुतः यह सूत्र व्याकरण के प्रथम सूत्र ‘ओम नमः सिद्धम् का सोद्देश्य-स्मरण था। यह सूत्र वैयाकरण शाकटायन द्वारा दिया गया था। विद्यारंभ-संस्कार इसी सूत्र से करने का विधान था। तत्पश्चात् वर्णमाला के अक्षर सिखाए जाते थे। इस सूत्र का निहितार्थ था- ‘जिसने योग या तर्क के द्वारा अलौकिक सिद्धि प्राप्त कर ली है अथवा जो बात तर्क और प्रमाण के द्वारा सिद्ध हो चुकी हो, उसे नमस्कार।’

अंकों के ज्ञान के लिए सस्वर अभ्यास पर ज्यादा जोर रहता था। गिनती, पहाड़ा, पौवा, अद्धा, पौना, सवैया, ढ़ैया, औंचा, ढौंचा, पौंचा का सस्वर वाचन करना होता था। चीख-चीखकर, गला फाड़-फाड़कर। यह वाचन दिन में नित्य दो बार करना होता था- प्रार्थना व छुट्टी के समय बड़ी कक्षाओं के बच्चे आगे खड़े होकर प्रथम वाचन करते थे। शेष बच्चे पूरी ताकत से दोहराते थे। यह क्रम वर्ष भर अविरल रूप से चलता रहता था। वर्षांत तक अभ्यास के चलते पहली कक्षा के छात्रों तक को यह क्रम कंठाग्र-जिह्व्याग्र हो जाता था।

उधर इस कलरव से अभिभावक निश्चिंत-से रहते थे। शोरगुल से ही वे जान पाते थे कि उनके पाल्य की शिक्षा-दीक्षा उचित दिशा में जा रही है। साथ ही बच्चों के शोर से उन्हें समय- ज्ञान भी हो जाया करता था। अभिभावक खेती-बाड़ी करने वाले साधारण किसान थे। सरल और निश्छल स्वभाव के। प्रवेश के अवसर पर वे अपने पाल्य के घर का, पुकारने का नाम ही लिखवा लेते थे। जो प्रायः सार्थक नाम नहीं होता था या विकृत ही रहता था। जन्म तिथि भी उन्हें स्मरण न रहती थी। अनुमान के आधार पर बच्चे की आयु नोट करवा लेते थे। जो प्रायः अधिक पड़ती थी। मास्टर साहब सजे-सँवरे नए नाम रखते थे। रजिस्टर में पुनः नामकरण संस्कार करते थे। गुड्डू को गुरदयाल सिंह, बग्थौंरु को बख्तावरसिंह इत्यादि।

नव्य-नामकरण से बच्चे का कायाकल्प हो जाता था। जन्म-तिथि अंकन में भी मास्टर साहब सजग और कमिटेड किस्म के इंसान थे। इसके लिए भी उन्होंने एक अंगुष्ठ-सिद्धांत(थंबरूल) ईजाद किया हुआ था। वे जन्मदिन व महीना यथावत् रखते थे। वर्ष में एकाध साल घटाने की जरूरत महसूस की जाती थी, जिससे आगे 10वीं 12वीं में एक दो बार फेल होने से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता था। प्रवेश के दिनांक को कोई भी छात्र पाँच वर्ष की वय से अधिक का नहीं मिलता था।

कक्षा दो में पहुँचने पर स्वतंत्रता-स्वच्छंदता को तिलांजलि देनी पड़ती थी। बच्चों की सारी रियायतें छीन ली जाती। यहाँ से अनुशासित हो जाने की परिपाटी थी। अभ्यास पर प्रबल आग्रह रहता था। स्लेट पर खड़िया से दिनभर अभ्यास करना होता था। इस विद्यालय में अभ्यास हेतु अभी तक नोटबुक का चलन शुरु नहीं हुआ था। भाषा व सामाजिक विषयों का सस्वर वाचन कराया जाता था। उच्चारण-दोष अक्षम्य था। मास्टर साहब स्वयं मय उच्चारण डेमोंस्ट्रेट करते थे। तालू, मूर्धा व दाँतों से उच्चारण एक-एक बच्चे से कराते थे। अनुस्वार व अनुनासिक का भेद स्वयं उच्चरित कर बच्चों से दोहराव कराते थे। उच्चारण-दोष वाले बच्चों को ठोक-पीटकर तब तक वाचन कराते, जब तक कि उसका उच्चारण शुद्ध न हो जाए।

कक्षा तीन में मुझसे ‘सुपरिंटेंडेंट’ की वर्तनी में अनुस्वार की त्रुटि हुई थी। मास्टर साहब ने खाक़सार को गिनकर दस बेंत लगायी। उस दिन से यह गाँठ बाँध ली कि इस जन्म में अन्य भूलें भले ही हो जाएँ, सुपरिंटेंडेंट की वर्तनी में भूल नहीं होगी। ‘ष’ को पेट फटा ‘ष’ कहने पर मास्टर साहब कुपित हो जाते थे।

अन्य विद्यालयों में शुद्धलेखन के लिए ‘इमला’ का चलन था। वह इस विद्यालय में नहीं चलता था। ‘इमला’ के स्थान पर ‘श्रुतलेखन’ कराया जाता था। हालांकि दोनों में कोई भेद नहीं था, मात्र नाम अंतर पड़ता था। कक्षा में वे सस्वर काव्य पाठ करते थे। हरिऔध कृत कविता ‘एक बूंद’ के सामान्य अर्थ तो बताते ही थे; अभिधा, लक्षणा में माहात्म्य भी बताते थे। श्याम नारायण पांडे कृत ‘चेतक की वीरता’ कविता का भी सस्वर वाचन करते थे। बच्चे मुग्ध होकर सुनते थे। वे हल्दीघाटी का साक्षात शब्द बिंब खींचकर बिखेर देते थे। भूषण की कविता शिवराज भूषण के अंश गाकर पढ़ाते थे:- 

इंद्र जिमि जंभ पर, वाडव सुअंभ पर।
रावण सदंभ पर, रघुकुल राज है॥
**
तेज तम अंस पर, कान्ह जिमी कंस पर।
त्यों म्लेच्छ बंस पर, शेर शिवराज है॥

कक्षा तीन के पाठ्यक्रम में रोमन दास एंड्रोक्लीज की कथा थी। वह स्वामी के घर से भागा हुआ दास था। जंगल में उसका शेर से सामना और शेर के रक्तरंजित पंजे से काँटा निकालने का मास्टर साहब कारुणिक बिंब प्रस्तुत करते थे। एक अन्य कहानी भी थी-सिंड्रेला की कहानी। हालांकि किताब में उस कथा का शीर्षक ‘परी की कहानी’ के रूप में दिया गया था। अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में वह ‘स्टोरी ऑफ सिंड्रेला’ के नाम से पढ़ाई जाती थी। यह कहानी सुनते हुए बच्चों की आँखों के सम्मुख सजीव दृश्य तैर रहा होता था।

पाठशाला के निकट एक मकान था। मकान पारंपरिक शैली में पत्थर और लकड़ी से बना था। गृहस्वामिनी एक निःसंतान विधवा थी। उसके घर में दो बिल्लियां रहती थी। वे हर समय अपनी मालकिन के आगे-पीछे चलती थी। मानो उसे एस्कॉर्ट करती हों। घर की दीवारों पर लंबी सी कद्दू की बेल रहती थी, जिस पर वृहदाकार कूष्मांड लटकते रहते थे। वह स्कूली बच्चों से स्नेह रखती थी। मक्खन बिलौने के काष्ठ के बर्तन से ताजा मक्खन निकालकर बच्चों को देती थी। वे मक्खन को ‘नौणि’ कहती थी। लोकभाषा का यह शब्द संभवतः ‘नवनीत’ का अपभ्रंश रहा होगा। वह घर रहस्यम-सा लगता था। गृहस्वामिनी का परंपरागत पहनावा सिंड्रेला की कथा-परी से साम्य रखता था।

मास्टर साहब को बच्चों के नाम तो मालूम ही थे, उनके कुल-वंश-वंशवृक्ष तक की भी संपूर्ण जानकारी रहती थी।
एकबार कुछ उद्दंड और शरारती बच्चों ने किसी गृहस्वामी के बंद पड़े मकान में अवांछित प्रवेश कर डाला। बंद मकान में लकड़ी काटने-छीलने के आरे-रंदे पड़े हुए थे। इतने सारे औजार देखकर ‘ट्रेसपासर्स’ का पौरुष जाग्रत हो उठा। उत्साहातिरेक में उन्होंने इन औजारों का इस्तेमाल घर के खिड़की-दरवाजों पर ही कर डाला। औजार चालू हालत में मिले। नादानी में बच्चों ने पर्याप्त क्षति पहुँचा दी। अगले दिन क्रुद्ध गृहस्वामी शरारती बच्चों को दंडित करने के इरादे से स्कूल में उपस्थित हुआ।

उसके इरादे देखकर मास्टर साहब ने उसको हस्तक्षेप करके रोका। साथ ही चेतावनी भी दी- “इस प्रांगण में मेरे विद्यार्थियों को छूने की गलती मत कर बैठना। निःसंदेह ये तुम्हारे अपराधी है। किंतु इनके अपराध का विचारण स्कूल समय के पश्चात ही कर सकते हो।”उसके जाने के पश्चात् मास्टर साहब ने उन लड़कों को अनुशासनहीनता का कठोर दंड दिया। साथ ही परिजनों से उस व्यक्ति की क्षतिपूर्ति दिलाई।

विद्यालय भवन रियासतकालीन था। भवन के नाम पर एक छप्परनुमा मिट्टी की संरचना थी। नया भवन भी बन चुका था लेकिन ठेकेदार एवं पेट्टी ठेकेदार में भुगतान को लेकर विवाद था। इस विवाद को लेकर उन्होंने भवन पर ताला जड़ दिया। अतः कक्षाएँ गाँव में अन्यत्र संचालित होती रही। विद्यार्थी तरुतल निवासी हो, प्रकृति की गोद में ही शिक्षाभ्यास करते थे। इन परिस्थितियों में भी मास्टर साहब गहन अभ्यास कराते थे। आर्ष सभ्यता व प्राचीन संस्कृति के अनुकूल वातावरण में। कुछ बच्चे शिक्षा के प्रति अनासक्त भाव भी रखते थे। मास्टर साहब उनका उपचारात्मक शिक्षण करते थे। रात्रिकालीन कक्षाएँ भी चलती थी। पाठ याद कराए जाते थे। ब्रह्म-मुहूर्त में जगाकर पुनः अभ्यास कराते थे। चीड़ व भीमल के छिलकों की रोशनी में सस्वर पाठ-स्मरण कराते थे।

मास्टर साहब का अद्वैत परंपरा में अटूट विश्वास था। समस्त कार्य वे स्वयं ही संपन्न करते थे। उनका मूलपद हेडमास्टर का था। घंटी बजाने से लेकर, कमजोर बच्चों के उपचारात्मक शिक्षण तक का कार्य वे स्वयं ही करते थे। गाँव में एक प्रभावशाली व्यक्ति थे। शेष ग्रामीणों से उनका द्वेष था। उनका अपने पुरोहितों से भी विवाद था। धीरे-धीरे यह विवाद संबंध टूटने तक की सीमा तक जा पहुँचा। कुछ समय पश्चात् उनके घर में एक बच्चे का जन्म हुआ। इस अंचल में इक्कीस दिन में शुद्धि-यज्ञ का, स्थानीय भाषा में ‘शुजिना’ (शुद्धि-जना:) व नामकरण का विधान था। पुरोहितों से उनकी लगी हुई थी। अतः बारंबार बुलाये जाने पर भी कोई भी पुरोहित आने को राजी न हुआ। यह अघोषित बहिष्कार प्राय: दो महीने तक चलता रहा।

एक दिन मास्टर साहब ने गाँव के एक वयोवृद्ध सज्जन को एक सुझाव दिया। उन्होंने शुद्धि यज्ञ संपन्न करने के लिए, स्वयं को प्रस्तुत किया। वयोवृद्ध सुलझे हुए आदमी थे। इससे मास्टर साहब को भावनात्मक बल मिला।  ग्रामीणों और पुरोहितों के सम्मिलित विरोध की प्रबल आशंका थी। इन सबकी परवाह किए बिना उन्होंने शुद्धि-यज्ञ, विधि-विधान से संपन्न किया। इसके पश्चात् कुछ लोगों ने मास्टर साहब को ‘टारगेट’ किया। मास्टर साहब ने उन्हें सपाट उत्तर दिया-“आपसी राग-द्वेष का दंड नवजात शिशु और उसकी माँ को नहीं दिया जा सकता। यह सभ्य समाज की निशानी नहीं हो सकती। आपके अनुसार उन्हें मुख्यधारा में सम्मिलित करना अगर सामाजिक अपराध है, तो भी ऐसा अपराध करने को मैं सहस्र बार तत्पर मिलूंगा। मास्टर साहब सायँकालीन एकांत में मधुर स्वर में कविताएँ गाते थे। वे अक्सर ‘प्रिय प्रवास’ की पंक्तियाँ गुनगुनाते हुए मिलते थे- ‘ऊधो मेरा हृदय तल था, एक उद्यान न्यारा।’

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