हम सभी ने नौले के अंदर से पानी के कनस्तर को निकाला और नौले की छत में रखकर अपनी जमकर प्यास बुझाई यही नहीं पहाड़ पहुंच कर पहली बार पहाड़ के प्राकृतिक स्रोत का पानी पीने के बाद एनर्जी ड्रिंक ग्लूकोज डी से ज्यादा ताकत हमें पहाड़ के उस जल पीने के बाद हुई, मेने तीन-चार छपाके मुंह पर पानी के मारे , जिसके बाद मुझे लगा कि में तरोताजा हो गया हूं, रुमाल से मुह पोछते ही नौले के सामने जैसे ही नजर गई तो एक हिसालू का पेड़ पके हुए हिसालू से लदा पढ़ा था
यात्रा वृत्तांत (प्रथम भाग) उत्तराखंड के कपकोट विधानसभा के कलाग ग्रामसभा की दर्द भरी कहनी
पानी पीने के तुरंत बाद हमारे साथ आए तीन साथी हिसालू के पेड़ पर ऐसे टूट पड़े थे जैसे सदियों से भूखे हो , मैंने भी हिसालू का नाम सुना था और तस्वीर में हिसालू बहुत देखा था जब हिसालू का पेड़ सामने देखा तो मुझसे भी नहीं रुका गया मैंने भी हिसालू के पेड़ से खूब हिसालू खाए , थोड़ी देर बाद पीछे से आवाज आई कि दोपहर के समय हिसालू गर्म होता है और गर्म हिसालू खाने से हैजा बीमारी भी हो सकती है मैंने जैसे हैजा बीमारी की बात सुनी तो तुरंत पेड़ से वापस आया क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि इतनी दूर आकर मैं बीमार पडू,
यात्रा वृत्तांत (द्वितीय भाग) उत्तराखंड के कपकोट विधानसभा के कलाग ग्रामसभा की दर्द भरी कहनी
अब हम एकदम तरोताजा होकर अपने मंजिल के करीब पहुंच गए थे हमारे सामने 300 मीटर दूर शादी का टेंट लगा था जहां मेरी भतीजी की शादी होने वाली थी मैंने सभी से कहा चलो अब बारात में चलते हैं हम जैसे ही बारात वाले घर पहुंचे मैंने समय देखा कि दोपहर के 12:30 बज चुके थे हमें सड़क से अपने गांव अपने घर पहुंचने तक 3 घंटे से भी अधिक का समय लग गया था मेरे बारात वाले घर पहुंचते ही मेरी माता जोकि 2 दिन पूर्व ही यहां पहुंच गई थी हमारा ही इंतजार कर रही थी हमारे पहुंचते ही उन्होंने सबसे पहले हमसे यही पूछा कि कोई परेशानी तो नहीं हुई अब हम क्या बता पाते , तबतक हमारा भतीजा हमारे आते ही हमारे लिए एक जग और एक गिलास में पानी लेकर आया थोड़ी देर पहले पानी पीने के बावजूद प्यास बुझ नही रही थी हमने फिर से पानी पिया और बारात वाला घर छोड़ ऊपर पास में ही अपने घर जाने की मां से इच्छा जाहिर की,
यात्रा वृत्तांत (तृतीय भाग) उत्तराखंड के कपकोट विधानसभा के कलाग ग्रामसभा की दर्द भरी कहनी.
मां ने कहा जब घर जा ही रहे हो तो अपने इष्ट देव के दर्शन करते हुए आओ और वहां भेंट भी चढ़ा देना, फिर मैं बारात छोड़ अपने मौसेरे भाई मनोज के साथ अपने घर की ओर चल दिया सबसे पहले मैं उस स्कूल में पहुंचा जो 1951 में कलाग ग्राम सभा में स्थापित हुआ था जिसके जीर्णोद्धार हुए महज चार पांच साल हुए थे इतने दुर्गम वह पिछड़े इलाके में प्राइमरी स्कूल की बिल्डिंग वह भोजन कक्ष देखकर मैं कुछ संतुष्ट हुआ, लेकिन एक सबसे बड़ी कमी मुझे जो महसूस हुई वह पेयजल की थी पेयजल की लाइन है तो हमें जरुर दिखाई दी लेकिन पीने के पानी की एक भी बूंद गांव के किसी नल पर नहीं दिखाई दी गांव में वहां कुछ बच्चों से हमने जो पूछा तो उनका सीधा एक जवाब था पानी कभी कबार आता है,
यात्रा वृत्तांत (चतुर्थ भाग) उत्तराखंड के कपकोट विधानसभा के कलाग ग्रामसभा की दर्द भरी कहनी.
पहाड़ के इस अति दुर्गम इलाके कलाग ग्राम सभा के अलावा बिजोरिया, मौद्गग्याड व अन्य ग्राम सभाओं में भी पानी की यही स्थिति थी स्थानीय लोगों से मैंने पूछा तो सबका यही कहना था कि 9 किलो मीटर दूर दूसरे गांव से पानी हमारे गांव में आता है लेकिन वह पानी भी प्राकृतिक स्रोत के पानी को एकत्र कर पेयजल पाइप लाइनों द्वारा भेजा जाता है और इस भीषण गर्मी में पहाड़ो में पानी का जलस्तर बेहद कम रहता है लिहाजा दूरस्थ इलाकों में पानी की बूंद-बूंद को लोग परेशान रहते है, गांव के आस पास कोई नदी भी नही है जिससे कि इलाके में होने वाली फसलों में थोड़ा भी सिचाई की ब्यवस्था भी हो सके, जैसे जैसे में अपने गॉव घूमा ओर लोगो से समस्याओं के बारे में पूछने लगा तो मुझे लगा कि सबकुछ कलाग गांव में राम भरोसे था ,
यात्रा वृत्तांत (पांचवा भाग) उत्तराखंड के कपकोट विधानसभा के कलाग ग्रामसभा की दर्द भरी कहनी.
मेने अपने रिश्तेदारों से भी पूछा कि क्या कोई जनप्रतिनिधि , एमपी , एमएलए इस गांव में आया , तो पता चला कि 8 -10 साल पहले केवल बनवन्त सिंह भौर्याल एक बिधायक रहे जो इस गॉव पहुचे और उन्होंने गांव में पेयजल की किल्लत को देख कलाग गांव से एक किलोमीटर दूर ढांकाणी (जंगल का प्राकृतिक स्रोत ) से पानी खींचने के लिए पम्प देने का वायदा किया ( केवल वायदा ) बाँकी सब राम भरोसे छोड़ दिया , अति दुर्गम व पिछड़ा इलाका होने के चलते कलाग के ग्राम प्रधान भी कुछ विकास यहा नही करा पाए, मनरेगा, स्वजल व केन्द्र सरकार की अन्य योजना जिनकी जनकारी थी उनमें भृष्टचार हुआ, जिन योजनाओं का पता नही वो ऐसे दुर्गम इलाके में भृष्टचार के दायरे में आ भी नही पायी, गिने-चुने ढाई सौ वोटरों वाले इस गांव में मुश्किल से 40- 50 वोटर ही आज रह रहे थे तो ऐसी अवस्था में इस गांव में दिलचस्पी लेता भी कौन क्योंकि जहां वोट बैंक होता है नेता भी वही दिलचस्पी लेते हैं इस गांव में ना तो कोई पंचायत घर था मैं कोई सरकारी अस्पताल मैं कोई अन्य सरकारी भवन ना कोई राशन की दुकान और ना ही कोई परचून की दुकान मौजूद थी यह एक ऐसा गांव मुझे प्रतीत होता था जैसे सड़क से कोसों दूर सीमावर्ती इलाका शायद सीमावर्ती इलाके में भी BSF व अन्य सेना के इलाके होने के चलते थोड़ा बहुत विकास हो जाता है
पर कलाग व उसके आसपास जुड़े कई गांव विकास की मुख्यधारा से कई कोस दूर नजर आए , लेकिन एक बात मुझे बड़ी गौर करने वाली दिखी की बिजली के पोलो के पहुंचने से पहले इस गांव में मोबाइल टावर जरूर पहुंच गया था और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की डिजिटल इंडिया की मुहिम इस अति दुर्गम गांव में भी 3G की अच्छी खासी स्पीड दे रही थी पर मैं यह सोच रहा था की हवा में ध्वनि तरंगों को पहुंचाने से ही क्या गांव का विकास हो जाएगा क्या ऐसे गांव से पलायन रुक जाएगा, करीब 90 के दशक में लगभग 300 लोगों की आबादी वाला हमारा गांव आज 50 लोगों की मजबूरी की मौजूदगी पर आकर रुक गया था , हर परिवार का एक सदस्य इस गांव में रहता है जो बाकि के परिवार के सदस्य और अपनी जमीन की देखभाल के लिए अपने बच्चों का भविष्य दांव पर लगाए हुए था हालांकि मेरे यह शब्द मुझे खुद अच्छे नहीं लग रहे थे, क्योंकि मेरी जन्मभूमि से मुझे इतना लगाव शायद पहले कभी अपने जीवन में नहीं रहा ,, जितना इस यात्रा के दौरान रहा , लेकिन सरकारों नौकरशाहों और तथाकथित पलायन विरोधी बुद्धिजीवी , कथित NGO व सामाजिक चिंतक और पत्रकार जिनमें मैं भी शामिल हूं इन सब की सोच यहाँ पर निर्गुण साबित हो रही थी,
इस गांव में पांचवीं तक पढ़ाई करने का एक स्कूल तथा उसके अलावा सरकारी योजना या सरकारी मदद से बना कुछ भी नहीं इन सारी चीजों को देखने और सुनने के बाद मैं अपने बचपन के उस दौर पर पहुंचा जब मैं 1 साल का था और मेरे माता पिता मेरे दो बड़े भाइयों के साथ मुझे भी इस जगह से पलायन कर नैनीताल जिले में स्थापित हो गए थे आज इस सोच क्षमता को अपने पास रखे हुए मुझे यह प्रतीत हो रहा था कि अगर मेरे पिता ने इस गांव से पलायन नहीं किया होता तो शायद आज मेरी शिक्षा पांचवीं से ऊपर नहीं होती और मैं इस गांव में गाय या बकरियां चरा रहा होता जैसा कि यहां रहने वाले ज्यादातर लोग कर रहे थे अधिक से अधिक काम के नाम पर गांव में मनरेगा की मजदूरी या लीसे की निकासी की मजदूरी जो कि अब ना के बराबर थी इन से ही काम चलाना पड़ता और इस गांव से निकले ज्यादातर लोग आज सरकारी नौकरी या यहां से बेहतर जिंदगी पलायन कर दूसरी तरफ जी रहे हैं.
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