उस दिन जानवरों को बाँधने वाली रस्सी से धुलाई हुई। पीठ पर निशान उभर आए

उस दिन जानवरों को बाँधने वाली रस्सी से धुलाई हुई। पीठ पर निशान उभर आए..(कहानी)..

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गर्मी की छुट्टियाँ किसी उत्सव से कम नहीं होती थी। बीस मई को नतीजा निकलता था। प्लानिंग उससे पहले ही शुरू हो जाती थी। छुट्टी के दौरान दस-बारह दिन की रोपनी छोड़कर पूरी छुट्टी नदी को समर्पित रहती थी। घर के बड़े दोपहर का भोजन करने के बाद आराम कर रहे होते थे, उस समय आँख बचाकर नदी की दिशा में निकल पड़ते। अब सोचकर ताज्जुब होता है कि उस समय कितनी सहन-क्षमता रही होगी। नदी के चौड़े पाट में तपती रेत और उसके ऊपर नंगे पाँव चलते बच्चे। घर से यह सोचकर निकलते थे कि दो-चार डुबकी लगाकर चुपके से घर में दाखिल हो जाएंगे, लेकिन थोड़ा और, थोड़ा और के चक्कर में दो-तीन घंटे से पहले नदी से बाहर नहीं निकलते थे। जल-क्रीड़ा करते-करते मन ढीठ हो जाता, अगर मार पड़नी ही है, तो फिर मन की क्यों न कर लें।

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गाहे-बगाहे नदी में मत्स्य-आखेट होता रहता था। बड़े-सयाने चोट (डायनामाइट) डालते तो जल-क्रीड़ा करते बच्चे भी मछलियाँ पकड़ लेते थे। वह मार से बचने का एक कारगर सा उपाय होता था। घरवाले ये समझकर माफ कर देते, चलो जाने दो। शाम के लिए मछली तो ले आया।

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उस वाकये को मैं कैसे भूल सकता हूँ। उस दिन हुआ क्या कि मैं घर में बड़ों की आँखों में धूल झोंककर नदी किनारे पहुँचा ही था कि चोट पड़ने की आवाज सुनाई दी। यह बिल्कुल वैसे ही हुआ, जैसे व्याकरण कि किताबों में लिखा रहता है- मोहन स्टेशन पहुँचा ही था कि ट्रेन आ गई। मेरे लिए यह नदी-नाव संयोग जैसा था। कपड़े-लत्ते उतारे और नदी में छलांग लगा दी।

थोड़ा सा परिश्रम करके मैंने दो मछलियाँ पकड़ी। आधा-आधा किलो से ऊपर की रही होंगी। शुद्ध ताजा रोहू, चमकते शल्कों वाली। झटपट नदी किनारे आया और नेकर-बनियान के नीचे उन्हें सलीके से छुपा दिया। उस दिन का उत्साह देखते ही बनता था। कैसे-कैसे करतब दिखाए। गोते-पर-गोते लगाए। बटरफ्लाई स्ट्रोक में नदी कई-कई बार पार की। राहत इस बात की थी कि आज तो मेरे पास घर में घुसने का पासवर्ड है। जब मन भर गया तो नदी से बाहर निकल आया।

कुछ छात्रों की सूचना के अनुसार गुरुजी ‘भुर्ता’ नामक रेसिपी बनाने में परम दक्ष थे. वे यह भी बताते थे कि गुरुजी भूस भरकर ‘टैक्सीडर्मी’ का भी अच्छा शगल रखते हैं.

मन मुदित था। अर्जित संपत्ति देखने के लिए कपड़े-लत्ते हटाए तो रोहू वहाँ से नदारद मिली। कलेजा धक् से रह गया। उम्मीदों पर तुषारापात हो गया। जल-क्रीड़ा के दौरान एक सज्जन को वहाँ से गुजरता देखा था। उस पर बड़ा क्रोध आया- यार सब कुछ करना था। बच्चे के साथ ऐसा नहीं करना चाहिए था। तुमने बहुत गलत किया। रास्ते भर उसे कोसते हुए घर गया। उस दिन जानवरों को बाँधने वाली रस्सी से धुलाई हुई। पीठ पर निशान उभर आए। पूरी धुलाई के दौरान मन-ही-मन उसे कोसता रहा- ये सब तेरी वजह से हुआ है। अरे बेरहम ऐसा ना करता तो मेरे साथ ऐसा क्यों होता?

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ये बचपन की बात है। इस बात को हुए एक लंबा अरसा बीत चुका है। जब कभी गाँव जाता हूँ तो उन सज्जन से राह-चलते मुलाकात हो जाती है। चलते-चलते दुआ-सलाम हो जाती है। उन पर नजर पड़ते ही मन कहता है- यार तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। तुमने बच्चे के साथ बहुत गलत किया। दिल तोड़कर रख दिया।

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