उस दौर में एक ओर मुर्गी चोरी बड़ा तुच्छ किस्म का सामाजिक अपराध माना जाता था, तो दूसरी ओर जोखिम उठाने वाले युवाओं की आपसदारी में ‘कुक्कुट हरण’ को एडवेंचर किस्म का दर्जा हासिल रहता था…पढ़े कहानी…….

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ग्राम्य जीवन में मुर्गे का मनुष्य जीवन से गहरा सांस्कृतिक संबंध रहा है। उसकी बड़े जतन से रक्षा की जाती थी। उस दौर में एकओर मुर्गी चोरी बड़ा तुच्छ किस्म का सामाजिक अपराध माना जाता था, तो दूसरी ओर जोखिम उठाने वाले युवाओं की आपसदारी में ‘कुक्कुट हरण’ को एडवेंचर किस्म का दर्जा हासिल रहता था।


कुक्कुट-हरण
       लाल जंगली मुर्ग वर्तमान मुर्ग का पूर्वज सिद्ध हुआ है। मनुष्य जगत से इसका गहरा ताल्लुक रहा है। मानव और मुर्ग में पचास ‘जीन’ ‘कॉमन’ बताए जाते हैं। ये अलग बात है कि मुर्गा गंध और स्वाद की पहचान-परीक्षा में ‘फेल’ बताया जाता है।
     इनमें कई प्रकार की देसज नस्ले पाई जाती हैं। इसके अतिरिक्त संकर नस्लें भी बहुतायत में है। मजे की बात ये है कि देसज नस्लें अभिजात्य व कुलीन श्रेणी में गिनी जाती हैं। वहीं संकर नस्लें पदसोपान में काफी नीचे स्थान पाती हैं।
    मुर्गा कितना पुराना है, इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि मोहनजोदड़ो के उत्खनन में मुर्ग की प्रतिकृति मिली है। ब्रह्मगुप्त ने तो ‘अलजेब्रा’ की ‘कुक्कुट-गणित’  नाम से बहुत पहले ही खोज कर ली थी। आचार्य भावप्रकाश ने मुर्गे के बीस लक्षणों का उल्लेख किया है। उन्होने यह भी दोहराया कि मनुष्य को कम-से-कम चार गुण तो मुर्गे से अंगीकार करने ही चाहिए। मुर्गे को साहसिक प्रवृत्तियों का वाहक माना जाता है।

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    महामति चाणक्य तो मुर्गे के चारित्रिक गुणों पर खूब रीझे। उन्होने प्रातः जागरण, रणोद्यत रहना, बंधुओं को उचित विभाग देना आदि उसके नैसर्गिक गुण बताए। युद्ध जीतकर विजित सामग्री को भोगने के गुण पर तो वे वारे-वारे जाते थे।

     मांस-विक्रेताओं के प्रतिष्ठानों में मुर्ग से संबंधित विज्ञापन देखने को मिलते है। ‘मुर्गे की पासपोर्ट साइज फोटो’ ही चितेरों का चित्त हर लेती है। अन्य विज्ञापनों की जरूरत ही नहीं पड़ती।

कथा- साहित्य, बाल-कथा, चित्रकला व मनोरंजन के साधनों में भी मुर्गे को उचित स्थान मिला है।
   स्कूली दिनों में ‘प्रातः टहलो’ शीर्षक का चित्रांकन करने को मिलता था। इस चित्र में सड़क-पगडंडी पेड़-पौधे, बगीचा व हवाखोरी करते व्यक्ति को दिखाना होता था। टीले पर बैठे बाँग देते मुर्गे के चित्र के बिना चित्र अधूरा-सा लगता था। प्रातः बेला को प्रभावी दिखाने के लिए बाँग देते मुर्ग को अनिवार्य घटक के रूप में मान्यता मिली हुई थी।  
    देसी मुर्गे की शान और रौब-दाब देखते ही बनती है।  उसके सम्मुख फार्मी मुर्गे अपात्र-कुपात्र से दिखते हैं। उसकी चाल में गजब का आत्मविश्वास रहता है। नेचुरल-सी मस्ती रहती है। व्यक्तित्व भी उसका अत्यंत प्रभावशाली दिखता है। रंग-बिरंगे पंख, उन्नत सिर, प्रशस्त कलगी, नुकीली चोंच, नुकीले पंजे। कौन रसिक होगा जो इस सौंदर्य पर न मर मिटे। दार्शनिक- सी आँखें, अर्ध-उन्मीलित- सी, मुदित मुस्कान, स्नेहसिक्त वाणी, जो कभी-कभी अट्टहास में भी परिवर्तित हो जाती है। वह नेतृत्व करने को सदैव तत्पर मिलता है।

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     मुर्गे के संस्कार वंशानुगत होते हैं। ये संस्कार पैतृक गुणवत्ता व उत्कृष्ट शारीरिक संरचना पर निर्भर करते हैं। मोर की कलगी और मुर्गे की कलगी को पक्षी विज्ञान के सौंदर्य-शास्त्र में एकमत से मान्यता मिली हुई है। अज्ञेय तो इससे भी आगे बढ़ गए थे। उन्होंने ‘कलगी बाजरे की’ पर ही काव्य-व्यवस्था दे डाली थी।

    उस दौर में मुर्ग-हरण के नाना प्रसंग किवदंतियों में विद्यमान है। ‘विप्र: बहुधा वदंति’ टाइप के।

   प्रथम सर्ग के साधक:- इस श्रेणी के साधक मुर्ग-प्रजाति से अनन्य अनुराग रखते थे। वे मुर्गे से स्नेह की लौ लगाए फिरते थे। निरंतर मुर्ग-स्मरण में तल्लीन रहते थे। मुर्गे की विकट चाह में डगर-डगर फिरते थे। इन साधकों ने मुर्गे से प्रत्यक्ष-साक्षात्कार का संकल्प लिया हुआ था। अतः मुर्गे के निवास पर दर्शन हेतु उन्होने ‘प्राइम टाइम चित्रहार’ के समय को चुना। इस समय का सुभीते के लिए चयन किया गया था, ताकि कोई भी मानव उनके साक्षात्कार में बाधक सिद्ध न हो। स्वाभाविक रुप से मनुष्य जाति इस अवधि में ‘चित्रहार’ में अनुरक्त रहेगी। वस्तुतः वेे मुर्गे के ‘चित्र में भी हार डालने’ का लक्ष्य लेकर चले थे।
   वे नियत समय पर नियत स्थल तक पहुँच गए। सर्वप्रथम उन्होंने मुर्गी-बाड़े की प्रदक्षिणा की। आवाज सुनकर दोनों मुर्गे सहम गए। तत्पश्चात् उन्होंने हथेली पर अक्षत रखा। मुर्गद्वय गर्भ गृह में विराजमान थे, एक कोने में सिमटे हुए थे। अतः बाड़े के प्रवेश द्वार से ही उन्हे अक्षत अर्पित किया जा सकता था। सो उन्होने हथेली को हाथ के सहारे आगे, काफी आगे तक बढ़ा लिया। स्पष्ट शब्दों में कहें तो उन्होने मुर्गों के चरण-स्पर्श करने की सक्रिय चेष्टा की। मुर्गे इन अयाचित साधकों की उपस्थिति से असहज थे। अतः उन्होंने भेट को अस्वीकार करने का मन बना लिया। चावल की तरफ झाँका तक नहीं।

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    इन्हीं साधकों में एक वाममार्गी साधक भी थे। वे सर्प स्वर निःसृत करना जानते थे। अतः उन्होंने हिस्स…. फिस्स… का स्वर निःसृत कर मुर्गों को स्तंभित कर डाला। यह एक रोचक तथ्य है कि सर्प-जाति में स्वर-कोश नहीं पाए जाते। उधर मुर्ग-जाति में उच्च क्षमता के स्वर-कोश पाए जाते हैं। यहाँ पर मुराद बाँग देने की क्षमता से है। इस गुण को धारण करने के कारण ही मुर्ग जगत्प्रसिद्ध है। स्वरहीन के स्वर से, उच्च स्वरकर्ता का स्वरहीन हो जाना अद्भुत छटा प्रस्तुत करता है। कला के क्षेत्र में ऐसे अद्भुत क्षणों को ब्रह्मानंद-सहोदर कहा गया है।

    साधक अपने साथ रबड़ बैंड रखते थे और भूदानी झोला लिए रहते थे। तदनंतर साधकों ने डरे हुए मुर्गों की चोंच और पंजो पर रबड़ बैंड पहनाये। ये सरंजाम इसलिए किये जा रहे थे ताकि वे मालिक से इस किस्म की चुगली न कर बैठें-
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अपने ‘प्रिय मुर्गों की सजीव देह’ को उस झोले में सुरक्षित रख लिया। वहाँ से पूर्व नियोजित स्थल अर्थात् सहपाठी के घर की ओर रात्रि विश्राम हेतु रवाना हो लिए।

साधकगणों ने कल का प्लान पहले से ही किया हुआ था। सुदूर स्थित विद्यालय में अवकाश के पश्चात् अपने ‘सदेह प्रिय’ को ‘विदेह’ करने की योजना थी। सोने से पहले उन्होंने भूदानी झोले को खूँटी में टाँग लिया। तत्पश्चात् झोले के सम्मुख सिर नवाया। फिर साधकगणों ने शयन किया।

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    ब्रह्म मुहूर्त में मुर्गों ने अपने नैसर्गिक स्वभाव के अधीन बाँग दी। यह बाँग भूदानी झोले के अंदर से ही दी गई थी। गृहस्वामी ने( जो सहपाठी के पिता होते थे) भी इस बाँँग को सुना। पहले तो उन्होंने बाँग का उद्गम स्थल आस-पड़ोस समझकर बाँग की अवहेलना की। पूर्वाभ्यास के क्रम में मुर्गों ने इस बार प्रायः पाँच मिनट का आलाप लिया। अतःगृहस्वामी को इस तथ्य में कोई संदेह नहीं रहा कि आलाप का उद्गमस्थल उनके चिरंजीव का शयनकक्ष ही है। अतः उन्होंने साधकगणों को आलिंगनबद्ध कर लिया। भूदानी झोले को जब्त किया। कहाँ से लाये.. क्यों लाये जैसे प्रश्नों के साथ आरंभ से आलाप तक का कथाश्रवण किया। फिर साधकों का शास्त्रसम्मत सत्कार संपन्न किया।

    अथ कुक्कुट हरण द्वितीय सर्ग:-
    इस पथ पर चलने के लिए सच्चे साधक-सा समर्पण वांछनीय रहता है। सामाजिक मान्यता में यह कृत्य पथभ्रष्ट भले ही हो, साधना का पथ साधक की दूरदृष्टि और दृढ़ निश्चय की कड़ी परीक्षा लेता है।

     हाजरा व कड़कनाथ प्रजाति के होने की सूचना कुछ भक्तों के जरिए मालूम हुई। अतः साधकों ने जरा भी विलंब नहीं किया। शरदकालीन रात्रि में ही नदी को पार किया। बाड़े के रात्रिकालीन दर्शन किए। अनुमान के आधार पर ही मार्ग तय किया गया। जूट के छह बोरे साथ में थे। माल भरने के साधन लेकर गए थे। विहित रीति-परंपरा से बोरे भर लिए गए। साधक अभीष्ट भार को वहन कर आधे से ज्यादा दूरी तय कर चुके थे। विजन-वन की सीमा आरंभ होने को थी। कुछ ही कदम शेष थे। तभी नेपथ्य से बंदूक फायर का स्वर सुनाई दिया था। दो राउंड फायरिंग हो चुकी थी। बोरों को ‘जहाँ है, जैसे है’ के आधार पर विसर्जित कर दिया गया। तत्पश्चात् वे घने अरण्य में विलीन हो गए। चूक ऐसे हुई कि प्राप्त सूचना में इस तथ्य का अभाव रहा कि मुर्गी बाड़ा-संचालक सद्य अवकाश प्राप्त सूबेदार था। किन्हीं विह्वल क्षणों में साधकों ने इस घटना के लिए पश्चाताप व्यक्त किया। भावुक होकर उन्होंने यह भी व्यक्त किया कि , “मुर्गप्राप्ति के निष्फल प्रयास में वे नश्वर देहदान से वंचित रह गए।”

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    इसके बाद भी वे अपने साधना पथ से न डिगे। उसी पथ पर प्रशस्त रहे। एक रात्रि अभियान में जो सूचना मिली, उसके मुताबिक प्राप्त संख्या सही पाई गई। बाड़े के दर्शन भी कर लिए थे। उसी क्षण एक सत्य से उनका साक्षात्कार हुआ । समस्त प्राप्त मुर्गो में से कोई भी  एक महीने से अधिक आयु का नहीं थी। चूजे ही चूजे थे। फिर भी साधक संतोषी भाव धारण करते थे। अतः इसे ईश्वरीय इच्छा मानकर उन्होंने समभाव से ग्रहण कर लिया।

अब इस त्रुटि का परिमार्जन इसी रात्रि में किया जाना था। अतः  तत्काल दूसरी पाली का धावा बोला गया। एक मुर्गी-बाड़े की प्रदक्षिणा की गई। इस दौरान उन्हें मुर्गी-बाड़ा पुरातात्त्विक महत्त्व का जान पड़ा। इससे उन्हें निद्राधीन गृहस्थ की विपन्नता का अनुमान लग चुका था। विपन्नता को देखकर साधारण गृहस्थ भी थोड़ा-बहुत दार्शनिक तो हो ही जाता है। ये तो साधक थे। अतः करुणा से भर उठे। जानते थे, गरीब की हाय लगती है। उन्होंने समाधान ढूँढ़ निकाला- छोटे चूजों का अर्पण भी उसी मुर्गीबाड़े में कर डाला। तत्पश्चात् साधक सेंटा क्लॉज की भाँति निःशब्द वहाँँ से प्रयाण कर गए।

      अथ कुक्कुट-हरण तृतीय सर्ग:-
      खान साहब कलगीदार, रोबीले, सुदर्शन मुर्गे के स्वामी थे। मुर्गा ‘कटखना’ श्रेणी में वर्गीकृत था। वह राह से आते-जाते राहगीरों के चरण-स्पर्श करने में त्रुटि नहीं करता था। धावक पथिकोंं का पीछा करता था। धावन-पथ पर धावक के पृष्ठभाग को प्रत्येक दशा में स्पर्श कर लेता था। बड़ा जिद्दी था। धावक की नश्वर देह का चुटकी भर हिस्सा स्मृति चिन्ह के रूप में ग्रहण कर ही मानता था।

      खान साहब ने मुर्गे को रौबीला बनाने के लिए क्या-क्या जतन नहीं किए। उसे अंधेरे में रखकर, मादा-साहचर्य से विमुख रखकर क्रोधी बनाया। एक दिन उन्होंने साधकों से उनके इस कुक्कुट को हरण करने की शर्त बदी। सफल होने पर बाकायदा इनाम की घोषणा की।

काम इतना आसान न था। खान साहब दोनाली के साथ सोते थे। उनकी निवार की चारपाई मुर्गी-बाड़े के निकट स्थापित रहती थी।
यहाँ भी रात्रिकालीन आरोहण किया गया। खान साहब खटिया पर निद्रालीन थे। तो भी उनके चेहरे के ऊपर हथेली को दाएँ-बाएँ घुमाया गया था। इससे यह परीक्षा कर ली गई कि वे सचमुच निद्रालीन है अथवा जाग्रत हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि ओढ़ी हुई निद्रा हो। साधक निरीक्षण-परीक्षण से निश्चिंत हो लिए।

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 तत्पश्चात् मुर्गी-बाड़े की प्रदक्षिणा की गई। मुर्गे ने भी पूरा पराक्रम दिखाया। वह एकसाथ चक्रण व भ्रमण करता रहा। बाड़े के अंदर इधर-से-उधर, उधर-से- इधर करता रहा। साधकों में तो धैर्य कूट-कूटकर भरा हुआ था। उन्होंने न तो आकुलता दिखाई, न ही व्याकुलता। वे प्रकृति के इस सिद्धांत को भलीभाँति जानते थे कि “मुर्गा चला आएगा दबे पाँव, जैसे बदलते हैं मौसम।”
अंत में वाममार्गी साधक को लगाया गया। उसने स्वर विशेष के सौजन्य से मुर्गे को स्तंभित कर डाला। जैसे ही मुर्गे की सिट्टी-पिट्टी गुम हुई उसका सदेह उद्धार हुआ।

      उस दौर में कुक्कुट हरण क्षम्य-अक्षम्य अपराध की विभाजक संधि-रेखा पर माना जाता था। मुर्गे के स्वामित्व के बिल, वाउचर, फोटो पहचान पत्र की रीति-नीति नहीं होती थी। यह तथ्य साधकों के अनुकूल पड़ता था। शेष उनकी प्रतिभा पर निर्भर करता था।

उस दिन जानवरों को बाँधने वाली रस्सी से धुलाई हुई। पीठ पर निशान उभर आए..(कहानी)..

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