भगवान विष्णु को शंख ध्वनि सबसे अधिक प्रिय है।और भगवान विष्णु की प्रत्येक तस्वीरों में भगवान के हाथ में शंख भी दिखाया जाता है।लेकिन भगवान विष्णु के पावन धाम भू बैकुण्ठ बद्रीनाथ धाम में आज भी शंख ध्वनि नही बजाई जाती हैं।जो हर किसी को अपने आप मे अचंभित करने वाला वाकया है।धाम में शंख न बजाए जाने को लेकर यह भी कहा जाता है कि यहां बद्रीनाथ धाम में भगवान ध्यानमुद्रा हैं। उनका योग भंग न किया जाए, इसलिए यहां शंखनाद नहीं होता है।
बद्रीनाथ धाम में शंख न बजाए जाने को लेकर बद्रीनाथ धाम के धर्माधिकारी भुवन चंद्र उनियाल ने बताया कि एक पौराणिक मान्यता के अनुसार वृंदा(लक्ष्मी) ने यहां तुलसी के रूप में तपस्या की थी।और उनका विवाह शंखचूड़ नाम के एक राक्षस से हुआ था। वृंदा साक्षात मां लक्ष्मी का अवतार हैं। उसके बाद भगवान विष्णु ने उन्हें धारण किया था। मां लक्ष्मी को यह याद न आए कि शंखचूड़ से मेरा विवाह हुआ है। इसलिए धाम में शंखनाद नहीं होता।
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वंही धर्माधिकारी उनियाल ने इसके पीछे रुद्रप्रयाग जिले के अगस्त्यमुनि ब्लॉक के सिल्ला गांव से जुड़ी प्राचीन मान्यता प्रचलित होने के बारे में भी बताया है। मान्यता है कि रुद्रप्रयाग जनपद के सिल्ला गांव स्थित साणेश्वर शिव मंदिर से बातापी राक्षस भागकर बदरीनाथ में शंख में छुप गया था, इसलिए धाम में आज भी शंख नहीं बजाया जाता है।
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दरसअल उच्च हिमालयी क्षेत्रो में तप्यस्या में लीन ऋषि मुनियों पर राक्षसों का बड़ा आतंक था।सिल्ला क्षेत्र में भी आतापी- बातापी राक्षसों का आतंक था।जिसको लेकर यंहा साणेश्वर महाराज ने अपने भाई अगस्त्य ऋषि से मदद मांगी। एक दिन अगस्त्य ऋषि सिल्ला पहुंचे और साणेश्वर मंदिर में स्वयं पूजा-अर्चना करने लगे, लेकिन राक्षसों का उत्पात देखकर वह भी भयभीत हो गए।
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लेकिन इस बीच उन्होंने मां दुर्गा का ध्यान किया तो अगस्त्य ऋषि की कोख से कुष्मांडा देवी प्रकट हो गई। देवी ने त्रिशूल और कटार से वहां मौजूद राक्षसों का वध किया। यह भी कहा जाता है कि देवी से बचने के लिए तब आतापी-बातापी नाम के दो राक्षस वहां से भाग निकले। और आतापी राक्षस मंदाकिनी नदी में छुप गयाव बातापी राक्षस यहां से भागकर बदरीनाथ धाम के एक शंख में छुप गया। मान्यताओ के अनुसार इसी वजह के कारण बदरीनाथ धाम में आज भी शंख बजना वर्जित किया गया है।
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