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उत्तराखंड- हिमालय का श्रृंगार पुष्प बुंराश खतरे में

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जीवन का सारा खेल ही जंगलों को लेकर है। जिस प्रकार एक-एक सांस को मोहताज मरीज के प्राण जैसे आक्सीजन सिलैन्डर पर टिके रहते हैं उसी तरह यह जीवन जंगल पर टिका है। लेकिन हमारी तेज होती व्यवसायिक सोच और मुनाफे की प्रवृत्ति ने हमें मानव से दानव बना डाला है। हवा.पानी में बदलाव के अलावा विलुप्त होती अनमोल वन सम्पदाएं और मौसम के बदलते तेवर हमारे शरीर की घटती कूवत बढ़ती बीमारियां दम तोड़ती संवेदनाएं तथा संस्कृति व संस्कारों में आ रहा बदलाव इसी की परिणति है।

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यह हमारी खुशनसीबी है कि तमाम तरह के बदलावों के बावजूद प्रकृति से रिश्ता बनाये रखने वाले हमारे पारम्परिक रीत.रिवाजों के चलते ही प्रदेश में अब तक वनों का वजूद कायम है। खासतौर पर अपने उत्तराखण्ड जैसा प्रकृति की सहजता वाला समाज जहां आजीविका का बड़ा हिस्सा आज भी पानी,ईधन,चाय आदि वन उत्पादों के रूप में जुटता है। दावानल की प्रचंड ज्वालाएं सुनहरी घाटियों के लिये अभिशाप बन गयी है।पहाडो में जंगलों में लगी आग के कारण वनों का सौन्दर्य नष्ट होते जा रहा है खाक में विलय होते वन पर्यावरण जगत में गहरे संकट का कारण बनते जा रहे है ।वन्य जीव जन्तुओं का अब वनों में रहना दुश्वार हो गया है!सूखते जल स्रोतौ ने लोगों के माथे कि चिताएं बढा दी है।अनेक भागो मे इनके सूखने से गहरा जल संकट उत्पन्न होनें लगा है ठडी हवाओ की बहारे गर्मी की तपिस में तब्दील होने से लोग परेशान होने लगे है ।

वनों के नष्ट होने का सीधा असर बुराशँ के पेड़ पर भी पड़ा है।उत्तराखण्ड के वनों की धरोहर बुरांश (Rhododendron) के फूल का अपना एक अलग ही महत्व है। बुरांश के जंगल पर्यटकों को लुभाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन फूलों की मनोहर छटा को देखने तथा लहराती ठंडी हवा से गर्मी से व्याकुल लोगों के मन में एक निराली शांति छा जाती है।

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गर्मियों के मौसम में खिले इन फूलों से यहां के जंगल तमाम हरी-भरी घाटियां खिली-खिली नजर आने लगती हैं। मन को लुभाने वाले बुरांश के फूल से हमें अनेक लाभ प्राप्त होते हैं। इन वृक्षों की अधिकता से पानी की पर्याप्त मात्रा बनी रहती है। इन वृक्षों के जंगलों में आसपास के खेतों में अनाज की पैदावर भी भरपूर मात्रा में होती है। उत्तराखण्ड में बुरांश के फूलों को खाने का बहुत प्रचलन है। खट्टे-मीठे रस से युक्त लम्बे अर्से से बुरांश के वृक्ष उजाड़े जा रहे हैं। उजड़ते फूलों के पेड से शीतल पेय तथा तरह-तरह के वृक्षों के कटान से यहां की प्राकृतिक छटा एवं पर्यावरण को भारी क्षति हो रही है।

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प्राकृतिक सम्पदा की हानि के साथ-साथ पर्वतीय क्षेत्र के तमाम इलाकों में पानी की कमी को दर किनार कर लोग अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति हेतु इनका अवैध दोहन करने लगे हैं। जिससे न केवल जंगलों तथा आसपास की खेती-बाड़ी के बंजर पड़ने की सम्भावनाएं बढ़ने लगी हैं,बल्कि वहीं इन वृक्षों की कमी से पर्वतीय जल स्रोतों के सूखने का क्रम लगातार जारी है। पर इन वनों के संरक्षण के लिए अभी तक कोई कारगार नीति तैयार नहीं की गई है। प्राकृतिक रूप से उत्पन्न वृक्षों के अलावा इन वृक्षों के अलावा इन वृक्षों को दोबारा लगाने की कोई ठोस नीति सामने नहीं आई है।

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बुरांश के पेड़ों का विनाश उत्तराखण्ड के वनों की मोहकता के लिए एक चिंतनीय विषय है। आजकल गाढ़े लाल रंग व सफेद गुलाबी रंग के पुष्प विशेष आकर्षण का केन्द्र बने हुए हैं। इस वृक्ष की हरी-भरी पत्तियों के आकर्षण से ऐसा मालूम पड़ता है मानो प्रकृति ने हरी चुनरियां में स्वयं को लपेट लिया हो।


मूलरूप से इस वृक्ष की ऊंचाई 22 फीट तथा गोलाई लगभग 5 फीट होती है। वृक्ष के छिले हल्के लाल व मटमैले रंग के होते हैं तथा इनका उपयोग प्राचीन काल से ही घरेलू दवाइयां बनाने में किया जाता है, जो आज भी जारी है। बुरांश का फूल गुच्छे के रूप में खिलता है। अधिकतर मई मास में कुमाऊं एवं गढ़वाल की घाटी इन फूलों से सुशोभित होती है। इस वृक्ष की लकड़ी को ईंधन के रूप में भी प्रयोग लाया जाता है।

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उत्तराखण्ड के गंगोलीहाट, लमकेश्वर, पाताल भुवनेश्वर, बेरीनाग, मुनस्यारी, चौकोड़ी, भेरंग पट्टी, चंपावत लाइन, कौसानी, अल्मोड़ा, रानीखेत, देवीधूरा, लोहाघाट, मोरनौला, ओखलकांडा, मायावती चम्पावत की घाटियां, उत्तरकाशी, चमोली, ग्वालदम, पौढ़ी, बागेश्वर आदि स्थानों की तमाम पहाड़ियों तथा घाटियों में बुरांश के फूल गुच्छों के रूप में खिलकर आकर्षण पैदा करते है।और लोगों के लिए मोहकता का प्रतीक है।इस तरह से वनों के नष्ट होने से जागरुक लोगों की चिन्ता बढ़ी है।इन्हीं में से एक अनूठी प्रथा वन क्षेत्र देवताओं को अर्पित कर देने की जन्मी है।

वनों के आस.पास बसे देश के विभिन्न भागों और यूरोप के पुराने चरवाहे समाजों में प्रचलित ष्सेक्रेट ग्रूब्सष् ;पवित्र कुंज से मिलती जुलती यह परम्परा विभिन्न क्षेत्रों में अलग.अलग नामों से विख्यात है। देव वनों की इस प्रथा में वनों के अत्यधिक दोहन से उपजे संकट के प्रति ग्रामीणों का पश्चाताप और अन्य गावों के लोगों से अपने वन क्षेत्र को बचाने की चिन्ता का भाव दृष्टिगोचर होता है। जो वन क्षेत्रों के दोहन की भरपाई होने या कभी.कभी उससे भी लम्बे समय तक जारी रहता है।

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देव वनों की इस अनूठी प्रथा में वन क्षेत्र ऐसे लोक देवता को अर्पित किया जाता है।लोकमानस मे जिसकी छवि न्यायकारी और अन्याय करने वाले का अनिष्ट कर देने की होती है। कुमाऊं मण्डल के ज्यादातर क्षेत्रों में ऐसे वन लोकदेवी कोटगाड़ी और लोकदेव गंगानाथ तथा गोलज्यू को अर्पित किये गये हैं। इन तीनों लोक देवताओं की छवि अन्याय करने वाले को कड़ा दंड देने की है। यह बंधन इतना बाध्यकारी है कि कठोर कानून और वन विभाग का भारी लाव.लश्कर भी ग्रामीणों के मन में इतना डर पैदा नहीं कर पाता। एक बार अर्पित कर दिये जाने के बाद वन क्षेत्र में वह सभी गतिविधियां स्वतः बंद होती हैं।

जिनका ग्रामीणों ने आपसी सहमति के आधार पर वन अर्पित करते समय निषेध कर दिया हो। जैसे वन क्षेत्रों में कुल्हाड़ी चलाना बंद हो जाए पर पालतू पशुओं की चराई खुली रहे या गिरी.पड़ी लकड़ी उठाने की मनाही न हो।पर वन्य जीवों का शिकार करना वर्जित हो। अनेक स्थानों पर ऐसे वन क्षेत्र में प्रवेश करने तक की मनाही होती है।

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देवता को अर्पित कर दिये गये वन क्षेत्र में प्र्वेश करने के रास्तों और सीमा पर लाल हरे पीले चटक रंगों के कपड़े के झण्डे पेड़ों पर लगा दिये जाते हैं जो इस बात का प्रतीक है कि अर्पित कर दिये गये वन की सीमा शुरू हो चुकी है। आरक्षित तथा पंचायती वनों की अपेक्षा देव वन क्षेत्र के रखरखाव में कोई खर्च नहीं होता। देव वन की सुरक्षा के लिए चौकीदार की जरूरत नहीं होती। वन क्षेत्रों में लागू किये गये नियमों का उल्लंघन करने पर देवता के प्रकोप का खौफ ही चौकीदारी का कार्य करता है। आमतौर पर ऐसा वन क्षेत्र ही लोकदेवता को अर्पित किया जाता है।

जो अत्यधिक दोहन के कारण रूग्ण हालत में पहुंच चुका हो और ग्रामीणों की आवश्यकताओं का दबाव वहन करने में सक्षम न रह गया हो। जब तक वन क्षेत्र में दोहन की भरपाई नहीं हो जाती तब तक किसी भी वन उत्पाद को लेने की मनाही होती है। पुराना स्वरूप वापस लौटने के बाद वन क्षेत्र को पुनः उपयोग के लिए खोल दिया जाता है।

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देवता को अर्पित कर दिये गये वन क्षेत्र में मानव हस्तक्षेप समाप्त हो जाने के कारण हरियाली और जैव विविधता की भरपाई अत्यंत तेजी से होती है।लेकिन सम्बंधित वन क्षेत्र पर निर्भर ग्रामीण आजीविका के वैकल्पिक उपाय चुनने को मजबूर हो जाते हैं। पिथौरागढ़ जिले की गंगोलीहाट तहसील में चिटगल फुरसिल चौटियार,मणकनाली कोठेरा,जाखनी,धौलेत व कनालीछीना का देवथल जागेश्वर में पुलाई आदि गांवों में एक के बाद एक अनेक पंचायती व स्थानीय वन पिछले वर्षों के भीतर लोकदेवताओं को अर्पित कर दिये गये।

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इससे इन क्षेत्रों में भीतर में हरियाली तो लौट आयी पर ग्रामीणों की परम्परागत आजीविका का स्वरूप छिन्न.भिन्न हो गया। जिनके पास संसाधन हैं वे ईधन के स्थान पर गैस या स्टोव का प्रयोग कर रहे हैं। पशुपालन के स्थान पर अन्य व्यवसाय अपना चुके हैं या अपनी निजी भूमि पर चाय ईधन उगा रहे हैंए परन्तु जो साधनहीन हैं।चाय और ईधन के लिए जिनके पास निजी भूमि नहीं है उनके कष्टों का कोई निदान नहीं है। वे आरक्षित वन या अन्य गांवों के पंचायती वनों से चोरी.छिपे अपनी जरूरतें पूरी करते हैं। ऐसी स्थिति में अपना वन बचाने के लिए अन्य गांवों के लोग भी वन क्षेत्रए देवता को अर्पित कर देने को विवश हो रहे हैं। गंगोलीहाट क्षेत्र का अनुभव इसी निष्कर्ष की पुष्टि करता है।


मंदिरों के पास स्थित पेड़ों को न काटने की परम्परा देश के प्रत्येक स्थान पर रही है। शायद ही यही श्रद्धा देव वनों की प्रथा के जन्म का कारण बनी होए परन्तु इतना निश्चित है कि इस परम्परा में अपने संसाधनों को दीर्घजीवी बनाये रखने की चेतना विद्यमान रही है। उत्तराखण्ड जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर आश्रित समाजों में कभी यह चेतना ग्रामीणों की सामूहिक भागीदारी वाली वन पंचायत व्यवस्था के रूप में तो कभी चमोली जिले के ष्रैणीष् गांव में अपने जंगल को ठेकेदार के हाथों से बचाने के लिए महिलाओं की मुहिम चिंपको आंदोलन के रूप में अभिव्यक्त हुई है।

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दुर्भाग्य की बात यह है कि वन संसाधनों को चिरस्थायी बनाने के लिए वर्तमान में जो भी प्रयास हो रहे हैं उसमें ग्रामीणों को परम्परागत ज्ञान और संरक्षण की चेतना को स्थान नहीं दिया जाता रहा है। उल्टा ग्रामीणों के सदियों के अनुभव से अर्जित प्रथाओं.परम्पराओं पर सरकारी शिंकजा कसने की कोशिशें की जा रही हैं। नई वन पंचायत नियमावली के अध्यादेश ऐसी ही एक कोशिश है। वहीं विश्व बैंक के कर्जे से संचालित की गयी संयुक्त वन प्रबंध जैसी भारी भरकम योजनाएं आधुनिक प्रबन्धन के नाम पर ग्रामीणों को परम्परागत ज्ञान से विमुख कर रही हैं और प्रकृति से उनके परम्परागत रिश्ते को समाप्त कर रही है।


आज आवश्यकता इस बात की है कि वन संरक्षण हेतु चलाये जाने वाले तमाम कार्यक्रमों में प्रबन्धन से लेकर संचालक तक का जिम्मा स्थानीय वन पंचायतों को सौंपा जाए इससे जहां वन संरक्षण की मुहिम में जनसहभागिता बढ़ेगी वहीं वन संरक्षण की मुहिम अपने अंजाम तक भी पहुंच पायेगी।

नोट- सभी चित्र साभार सोशल मीडिया से लिए गए हैं..

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