‘बात पहाड़ की’ लोकगायक बीके सामंत की कलम से (भाग 4)

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पहाड़ ‘ व पहाड़ के ब्रो ,

हमारे पहाड़ में सौड़ा , हिंदी में साही , व इंग्लिश में ( porcupine ) के नाम से जाना जाने वाला एक जंगली जानवर जिसे हम सब ने शायद देखा ही होगा के वो काँटे मुझे याद आ गये .

दादा , भाया , भैजी , दाज्यु पहाड़ के और भी अन्य नाम जो जगहों के हिसाब से हम एक दूसरे को बोला व पुकारा करते थे , आज ये नाम कुछ तादाद में कम से हुये महसूस हुये होते हैं , आप कहेंगे कि मैं इन नामों की चर्चा क्यों कर रहा हुँ तो मेरा जवाब है ब्रो !
जी हाँ ब्रो , अब आप कहेंगे कि ये क्या बात हुई , तो आइये जानते हैं इन के बारे विस्तार से .

‘बात पहाड़ की’ लोकगायक बीके सामंत की कलम से (भाग 1)

हम इन्हें इनके चलने – फिरने से लेकर उठने – बैठने व बात करने के अंदाज़ से इनकी ब्रो होने की पहचान कर सकते हैं , कभी कभार तो ये अपने खाना खाने व पानी पीने के तौर तरीक़ों से भी अपने आप को रियल ब्रो साबित करने की कोशिश करते हैं , और हद तो तब हो जाती है जब ये अपनी भाषा शैली व शारीरिक भाषा से ख़ुद को हर चीज़ में आप से भी बेहतर साबित करने की कोशिश करते हैं , या मैं युँ कहूँ कि कभी कभार तो ये कर भी लेते हैं ‘ तो शायद ग़लत नहीं होगा .

‘बात पहाड़ की’ लोकगायक बीके सामंत की कलम से (भाग 2)

पहाड़ी समाज व संस्कृति में ब्रोवों का योगदान !

इन का योगदान हमारी संस्कृति को लेकर क्या रहा ये तो मैं नहीं बता सकता , पर पहाड़ी सभ्यता की कैसे मिट्टी पलीद की जाये इसके कइयों उदाहरण मैं आप को गिना सकता हूँ .

इन सभी ब्रोवों से मेरा विनम्र निवेदन है कि अपनी संस्कृति व तीज त्यौहारों की तरफ़ लौटें जिस से कि हमारी आने वाली पीढ़ी का रुझान बजाय ब्रो बनने के भाया , दादा , भैजी दाज्यु बनने की तरफ़ ज़्यादा हो , और आप के इस योगदान को देखकर व सुनकर हर पहाड़वासी फूले ना समा पा सके .

‘बात पहाड़ की’ लोकगायक बीके सामंत की कलम से (भाग 3)

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