यह एक ट्रेनिंग कॉलेज की कथा है, जिसमें एक ट्रेनी शिक्षक कुछ चालू पुरजों के बीच फँस जाता है… पूरी पढ़ें..

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शिक्षक बनने से पहले शिक्षक प्रशिक्षण लेना होता है। यह एक ट्रेनिंग कॉलेज की कथा है, जिसमें एक ट्रेनी शिक्षक कुछ चालू पुरजों के बीच फँस जाता है। उसे परेशान करने के लिए वे कैसे-कैसे हथकंडे आजमाते हैं।


ब्रह्म मुहूर्त
     

छात्रावास में ‘दो प्रशिक्षु एक कक्ष’ का विधान था। दो-दो की संख्या में प्रशिक्षु एक-एक कमरे में रिहाइश करते थे। दैवयोग से एक कक्ष विपरीत दिनचर्या के दो प्रशिक्षुओं को आवंटित हो गया। दोनो परस्पर विपरीत स्वभाव के थे। पौराणिक कथानायक गोकर्ण-धुंधकारी जैसी दिनचर्या।
   
 एक ब्रह्मा मुहूर्त में जागरण करते थे तो दूसरे शयनारंभ। एक कक्षा में नियमित रूप से उपस्थित रहते थे, दूसरे नियमित रुप से उतने ही अनियमित। एक कक्षा में नोट्स गंभीरता से लेते थे, तो दूसरे प्रायोगिक विषयों के कंपलसरी असाइनमेंट को भी गैर जरुरी समझते थे। एकदम कंट्रास्ट का समाँ बँधा हुआ था।

     कक्षाओं में पढ़ाने जाना होता था। उससे पहले संबंधित पाठ की पाठ-योजना तैयार करनी होती थी। शिक्षण को रोचक बनाने के लिए चित्र, मॉडल, डिजाइन, चार्ट, स्केच इत्यादि सहायक सामग्री उपयोगी मानी जाती थी। दूसरा साथी इन्हें मामूली श्रेणी का व्यवसाय समझता था। वह सहायक सामग्री को हेय दृष्टि से देखता था। इस तरह के सरंजाम करने के लिए पहले साथी की खिल्ली उड़ाता था।

       ब्रह्म मुहूर्त को अगले दिन इतिहास में ‘बाबर’ पढ़ाना था। सहायक सामग्री उन्होंने स्वयं तैयार की। रोलिंग ब्लैकबोर्ड पर ‘बाबर’ का रेखाचित्र बनाया। रेखाचित्र के नीचे बाबर (१५२६-१५३०) लिखा। इनसेट बॉक्स बनाया और उसमें फरगना, समरकंद, काबुल, पानीपत, खानवा, चंदेरी, घाघरा का नक्शा बनाया।

शिक्षण में कुछ निश्चित धारणाएँ होती है। कंटेंट को कनेक्ट करने के लिए दृश्य सामग्री उपयोगी मानी जाती है। इससे ट्रांसफर ऑफ लर्निंग सहज हो जाती है। वर्णित पात्र, घटना संबंधी चित्र अत्यधिक उपयोगी माने जाते हैं। मान्यता है कि यह सामग्री पाठ्यवस्तु का अर्थ ग्रहण करने में बच्चों के लिए उपयोगी सिद्ध होती है।

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    रात्रि जागरण वाले साथी का एक गिरोह था। उसने गिरोह के साथ मिलकर इस चित्र में रात्रि में ही तीन मौलिक सुधार किए-

   एक- चॉक से बाबर के दोनों कंधों पर तीन-तीन सितारे टाँक दिए। बाबर के नाम से पहले कैप्टन का ओहदा भी लिख दिया। इस विधि से बाबर ‘कैप्टन बाबर’ बन चुके थे।
   दो-१५२६ से पूर्व कोष्ठक में कार्यालय लिखा व १५३० से पूर्व निवास। इस तरह से भारत में उनके शासनकाल के आरंभिक और अंतिम वर्ष उनके ऑफिस और घर के फोन नंबर से दिखने लगे।

 तीन- इनसेट में लिखें स्थलों से पूर्व मँझला कोष्ठक लगाया और सुस्पष्ट अक्षरों में शाखाएँ (ब्रांच ऑफिस) लिख डाला।

     अगले दिन जब ब्रह्म मुहूर्त शिक्षण से लौटे तो घनघोर रुप से कुपित थे। उनके बाल बिखरे हुए थे। शर्ट की बाहें अस्त-व्यस्त थी। भले आदमी के कुपित होने का आदर्श तरीका यही होता है। चूँकि वह आत्मदमन करता है। स्वयं को कष्ट देता है। पीड़ित रहकर भीतर-ही-भीतर घुटता है। वह यह सब इसलिए करता है क्योंकि वह कर्ता को इस दशा में लाने में असमर्थ रहता है।
गिरोह इतने से भी संतुष्ट न था। पीड़ित को लक्षित कर कह रहा था- “बादशाह का जनरल का ओहदा घटा है ना। आप क्यों टेंशन ले रहे हैं। जनरल का रैंक डाउनग्रेड होने से आपको तो कोई कष्ट नहीं होना चाहिए। हम मानते हैं, ओहदाधारक को कष्ट हो सकता है, पर उन्होंने तो इस विषय में कुछ भी नहीं कहा।”

    हर घटना से व्यक्ति सीख लेता है। कुछ दिनों तक वे सतर्क-से रहे। अपनी सहायक सामग्री की दुश्मनों से रक्षा करते रहे। सामग्री चेक करने के उपरांत ही कक्षा में पढ़ाने गए। कुछ दिनों बाद दिनचर्या सामान्य हो चली थी। उन्हें ऑस्ट्रेलिया में भेड़ पालन पाठ पढ़ाना था। अतः इन्होंने रोलिंग बोर्ड पर भेड़ का चित्र रेखांकित किया। चित्र का उद्देश्य बच्चों में वर्ण्य विषयवस्तु की दृश्य कल्पना करना था। शिक्षण को रोचक बनाना था।

    सुधारको ने इस चित्र में भी मौलिक सुधार कर डाले। भेड़ के अगले व पिछले पैरों को हवा में गतिशील अवस्था दी। सींग बड़े व घुमावदार बनाये। भेड़ के नथुनो से अग्नि प्रज्ज्वलित हो रही थी।

अगले दिन शिक्षण के उपरांत जब वे लौटे तो इसी पोज में कुपित हो रहे थे।

     ब्रह्म मुहूर्त प्रशिक्षण से पूर्व डी. फिल. में ऐनरोल्ड थे। उनका प्रोजेक्ट अभी भी गतिमान था। अवशेष कार्य को वे छात्रावास में रहकर भी गति दिए रहते थे। उनके कक्ष में शहतूत की पत्तियाँ पड़ी रहती थी। उन पर रेशम- कीट पल-बढ़ रहे थे। वे रेशम कीट की लाइफ साइकिल इत्यादि के नोट्स लेते रहते थे। दस बजे वह सो जाते थे।.

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      तब तक गिरोह सक्रिय हो उठता। मध्य रात्रि में उनका दरवाजा पीटकर उन्हें जगाया जाता था। उनका साथी गिरोहबाज दरवाजा नहीं खोलता था। अतः वे नींद से जागकर दरवाजा खोल देते। जब वे दरवाजे के बीचोंबीच खड़े होकर जगाने का कारण पूछते, तो बाहर वाले कहते थे, “अंदर आकर बताते हैं।” ‘प्रविसी नगर कीजे सब काजा, हृदय राखि कोसलपुर राजा’ कहकर कक्ष में प्रवेश करते थे। अंदर पहुँचकर मौन साध जाते। उनके बारंबार जोर देने पर वे रहस्य खोल देते थे, “हम तो आपके रेशम कीट की प्रोग्रेस देखने आए हैं, जरा दिखाना तो।”
ना-नुकुर के बाद वे उनको उस कोने तक जाने की अनुमति देते थे। गिरोहबाज शहतूत के पत्ते हाथ में ले लेते थे। कीटों पर दृष्टिपात करते जाते। स्वगत में कहते,”आप सहृदय व्यक्ति हैं। हमें अपने से बाहर मत मानिए। हम आपके हितेषी ही है। केवल यह देखने आते हैं कि कीड़े आपको आपकी मेहनत का प्रतिफल दे भी रहें कि नहीं। कहीं कामचोरी तो नहीं कर रहे हैं। आप तो इन पर सख्ती दिखाने से रहे।”

    कमेंट्री शैली में वे कीटों की आलोचना करने लगते थे। एक-आध की सराहना भी करते जाते थे। अन्य कीटों को उससे प्रेरणा लेने की नसीहत भी दे डालते। तब तक भोर हो जाती थी। कक्षस्वामी को यह कहकर विदा देते थे, “अब तो आपके जागने का समय हुआ ही जाता है।” जाते-जाते उन्हें आश्वासन देना न भूलते थे, “कामचोर कीटों पर निगरानी रखने हम समय-समय पर आते रहेंगे। आप निश्चिंत रहना। आखिर मैत्री- धर्म भी तो कोई धर्म होता है।’

   दिखावे के लिए ही सही, ब्रह्म मुहूर्त की दिनचर्या को गिरोहबाज भी अपनाना चाहता था। इस हेतु वह यदाकदा उनकी कुर्सी पर विराज जाता। उसकी धारणा थी कि कुर्सी पर विराजने से सहनशीलता, उदारता, समयनिष्ठा इत्यादि गुण उसमें भी इंस्टॉल हो सकते हैं। इस प्रकार वह इन गुणों को ग्रहण करने की चोरी छिपे चेष्टा करने लगा। जब-तब कुर्सी पर जा बैठता था। सुने जा सकने योग्य स्वर में भरतवाक्य कहता, “विक्रमादित्य की न्याय-पीठ पर हम भी बैठ गए हैं। अगर ऐसा करके चरवाहे बच्चों में न्याय- विधान की समझ विकसित हो सकती है, तो पीठ पर बैठकर हम क्यों न लुत्फ उठाएँ। मुझमें भी तो सद्गुण सकते हैं।”

      कुर्सी पर उसका बैठना ब्रह्म मुहूर्त को तनिक भी नहीं सुहाता था। उधर ब्रह्म मूहूर्त के सीढ़ियाँ चढ़ने की सूचना उसे पहले ही मिल जाती थी। वह तत्काल उनकी कुर्सी पर कूद जाता। फिर आसन बाँधकर बैठ जाता था। दरवाजे से प्रवेश करते ही वे न्याय पीठ पर उसे बैठे देखते, तो कुढ़ते-कुढ़ते भुनभुनाते रहते थे। समस्त गिरोह मिलकर इस दुर्लभ दृश्य का रसास्वादन करता था।

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     छात्रावास का स्नानागार छतविहीन था। मूल भवन की छत तो थी। उसके नीचे स्नानगार की चेंबरनुमा संरचना थी। गिरोह के समानधर्मा अन्य लड़कों के स्नान के अवसर पर स्नानागार की दीवारों पर पैर लटकाकर बैठे रहते थे। स्नानकर्ता को इस बात की जानकारी नहीं रहती थी। वह अर्द्धस्नान कर चुका होता था कि ऊपर बैठे गिरोह के सदस्य स्नानरत व्यक्ति को बीच-बीच में निर्देश देने लगते थे- “मुँह पर फिर से पानी डालो। पीठ पर पुनः साबुन मलो। रगड़-रगड़कर मलो।”
जिन साथियों से बातचीत बंद रहती, उनको निर्देश नहीं दिए जाते थे। इसके स्थान पर उनकी स्नान-क्रिया की रनिंग कमेंट्री प्रसारित की जाती थी। कमेंट्रेटर का मुख छात्रावास के कॉरीडोर की तरफ रहता था।

      प्रायोगिक कक्षाएँ भी चलती थी। ट्रेनिंग में उद्यान, ड्रॉइंग जैसे विषय भी शामिल थे। उद्यान के प्रेक्टिकल के लिए क्यारियाँ आवंटित थी। उनमें वाटिका- फुलवारी विकसित करनी होती थी। वार्षिक परीक्षा में वाटिका निरीक्षण कर परीक्षक मूल्यांकन करते थे। वर्ष भर गिरोहबाज इस कार्य को श्रमिकनुमा कार्य मानते रहे। आवंटित क्यारियाँ परती ही पड़ी रही। परीक्षण पूर्व की रात्रि में वे चमत्कार कर डालते थे। अपनी-अपनी क्यारियाँ खोद डालते। अन्यों कि सुसज्जित फुलवारियों से चुन-चुनकर सुंदरतम पुष्पित पौधों का रोपण कर डालते थे। इतना ही नहीं फव्वारे से अपनी फुलवारी का विधिवत सिंचन भी किया करते थे। परीक्षा के दिन गजब का नजारा रहता था। कल तक जो क्यारियाँ परती पड़ी थी, आज वे साक्षात् नंदनवन की शोभा दे रही थीं। परीक्षक की निगाहों में गिरोहबंदों के लिए प्रशंसा के भाव थे।

     ड्रॉइंग-परीक्षा के लिए भी यही नीति अपनाई जाती थी। चालीस अंतेवासियों से एक-एक ड्रॉइंग शीट का भिक्षाटन किया जाता था। अंतेवासी उनके कृत्यों से या तो भयभीत थे अथवा प्रभावित। अतः उन्हें सहर्ष भिक्षा दे देते थे। इस प्रकार वे अपनी आंतरिक स्थिति सुदृढ़ कर लेते थे। तब पूर्ण आत्म विश्वास के साथ परीक्षक के सम्मुख उपस्थित होते थे।

    इन्हीं में एक गिरोहबाज थे। जिनकी शिक्षा-दीक्षा मानविकी पृष्ठभूमि में हुई थी। गणित का वॉयवा-वॉइस चल रहा था। उनका वॉयवा विलक्षण ढ़ंग से संपन्न हुआ। परीक्षक ने उन्हें कुछ गणितीय आकृतियाँ दिखाई। प्रिज्म की आकृति दिखाकर पूछा, “यह क्या है?”
 उत्तर मिला, “त्रिकोण।”
 उनके पीछे एक और गिरोहबाज खड़ा था। उसने अंगुली चुभोकर इन्हे सतर्क किया। उस समय वे उत्साह से लबरेज़ थे। अंगुली झटककर चेतावनी अनसुनी कर बैठे।
दूसरे सवाल में ‘क्यूब’ दिखलाकर पूछा , “यह क्या है?”
  उत्तर मिला, “वर्गाकार।”
  अंगुली पुनः हटा दी गई। अंतिम आकृति दिखाई गयी, गोला।
 उत्तर मिला, “वृत्त।”
      बाहर आकर वे जोश में फड़क रहे थे। मुँह से ओज और तेज एकसाथ टपक रहा था। बिनपूछे बता रहे थे कि उन्होंने समस्त आकृतियोंं की सही-सही पहचान बतायी है। अंगुली छुआने वाले भी साथ में थे। उनका मत भिन्न था। उनका कहना था, “पहचान तो सही रही। बस एक कमी रह गई। आप थ्री डाइमेंशन को टू डाइमेंशन में देख रहे थे। बाकी तो आप का प्रदर्शन अब्बल ही अब्बल रहा।”

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    एक अन्य गिरोहबंद थे। वे अपनी वैवाहिक प्रास्थिति को गोपनीय रखते थे। साथ ही अपनी पूर्व शासकीय सेवा का रहस्य रहस्य ही रखना चाहते थे। सौंदर्य प्रसाधनों का जमकर इस्तेमाल करते थे। वेश-विन्यास व केश-विन्यास से मनोहर बने घूमते थे। इस प्रकार अपना मनोरथ साध लेते थे। कुछ गिरोहबन्दो की धारणा थी कि वे गृहस्थ है। हालांकि इस धारणा की पुष्टि के लिए उनके पास कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं था।
    एक दिन एक भद्र महिला छात्रावास में आई। उनके साथ एक सुदर्शन युवक भी था। वे उनके कक्ष का पता पूछ रही थी। पता बताने वाले ने कक्ष की सही स्थिति तो अवगत करायी ही, पूरे छात्रावास में निःशब्द डुगडुगी भी पिटवा दी। जिसका अभिप्राय था, “हर आमोखास को सूचित किया जाता है कि अमुक की धर्मपत्नी व श्यालक साहब पधारे हैं। शीघ्र दर्शन लाभ लें। मौका कुछ ही पलो तक उपलब्ध।”
छात्रावासों मे पुरातन परंपरा चलती है। इस परंपरा के अनुसार भद्र वेश में समस्त गिरोहबंदो की भीड़ उनके कक्ष के बाहर मजमा लगाये खड़ी थी।
     प्रमाण प्रत्यक्ष मिल चुका था। इसका गृहस्थ पर गहरा असर पड़ना चाहिए था। वह साथियों के अयाचित प्रेम प्रदर्शन से त्रस्त हो चुका था। उसने आगंतुओं का परिचय परस्पर भाई-बहन के रूप में जनसमूह से कराया। स्वयं को गोल करके वह खेल खेल चुका था। अपने विषय में मौन साध गया। शिष्टाचार का मौका था। तो भी किसी ने रिश्ते के प्रश्न को अनसुलझा पाकर मौके पर ही कह डाला, “संभवतः ये देवीजी और साले साहब तो नहीं। न जाने क्यों हमें तो ऐसा ही लग रहा है।”
     इनकी पूर्व सेवा के विषय में भिन्न-भिन्न मत थे। एक साथी का मत था कि यात्रा काल मे उन्होंने उनसे परिवहन निगम की बस का टिकट कटवाया था। अतः ये निश्चित रुप से रोडवेज के कंडक्टर रह चुके थे। खोजी दल सक्रिय थे। वे चुप बैठने वालों में से नहीं थे। उनके सेवा अभिलेख, भविष्य निधि अभिलेखों से इन तथ्यों की पुष्टि की जा चुकी थी।

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