एक बीते मोहल्ले की कहानी

पुस्तक समीक्षा-लेखक ललित मोहन रयाल की नजर में “एक बीते मोहल्ले की कहानी”

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वरिष्ठ कथाकार बटरोही जी के कथा-संग्रह ‘एक बीते मुहल्ले की कहानी’ का दूसरा संस्करण समय साक्ष्य से अप्रैल 2021 में प्रकाशित होकर आया है. संग्रह की तीनों लंबी कहानियां अलग-अलग भाव-भूमि पर आकार लेती हैं और स्वरूप-संवेदना की दृष्टि से परिवेश की जटिलता को दर्शाती हैं बटरोही जी ऐसे कथाकार हैं, जो एकरसता को तोड़ने की जरूरत पर बल देते हैं. उन्होंने जब-तब सामाजिक प्रतिबद्धता की कहानियां लिखकर अपने भीतर के रचनाकार को जिंदा रखा है.

संग्रह की शीर्षक कथा ‘एक बीते मुहल्ले की कहानी’ साझी विरासत वाली मोहल्लेदारी से लेकर सौहार्द बिगड़ने तक की दास्तान को बयां करती है. यह पुराने बाजार के उन छोटे-मोटे व्यापारियों की दास्तां है, जो एक-दूसरे का खिल्ली-मजाक उड़ाते हैं, छींटाकशी करते हैं.परस्पर चुहलबाजी करते हैं, बीच-बचाव करते हुए मोहल्ले में सौहार्द और समरसता कायम रखते हैं. फिर वह पुरानी खासियतों वाला दौर तेजी से बदलता है, देखते-देखते पुराने बाजार के समूचे ही ढर्रे का कायाकल्प हो जाता है. बाहरी-भीतरी के बीच चल रहे इस संघर्ष में बदली-बदली हवा में माहौल संदेह भरा हो जाता है. ज्यूंही पुराने लोगों पर दु:खों का पहाड़ टूटता है तो नए लोग चालबाजियों से उन्हें दुकानें औने-पौने दामों पर बेचने को मजबूर करते हैं.


नए संपन्न वर्ग का एक ही धेयवाक्य है- ‘सवाल अच्छे-बुरे का नहीं, बिजनेस का है.’ यह भावना रहे-सहे सौहार्द को भी लील जाती है. नव धनाढ्यों का बिजनेस चमकता जाता है. ‘पैसा आदमी को बाहर से जितना ऊपर उठाता है, अंदर से उतना ही खोखला कर जाता है.’बाजार में वर्चस्व कायम रखने के लिए ‘हितकारी मोर्चा जैसे संगठन बनते हैं, जिनकी स्यूडो रिवॉल्यूशनरी गतिविधियां भले लोगों की इज्जत तार-तार कर देती हैं.

गरीबों के उत्थान के लिए बनी योजनाएं धरातल पर जाकर कैसे दम तोड़ती हैं, इसका समूचा ब्यौरा संग्रह की दूसरी कथा ‘ऋण मुक्त’ में मिलता है.कथा, पथरीले रास्ते की चढ़ाई चढ़ रहे हरक राम के दिमाग में चलती है. भैंस का कटा हुआ कान उसके हाथ में है. खुंडी भैंस उसे क्रेडिट कम सब्सिडी की किसी स्कीम में मिली है, खुंडी बड़ी दुधारू है, मालिक हरकराम से बड़ी आत्मीयता रखती है, लेकिन जरूरत ऐसी आन पड़ती है कि उसके पास इसके सिवा और कोई चारा शेष नहीं रहता.हालांकि जब अन्य ग्रामीणों ने बैंक-ब्लॉक के कर्मचारियों से मिलकर, भैंस का कटा कान दिखाकर मुआवजा लिया तो उसने उसका तीखा विरोध किया और वह इस भ्रष्टाचार में शामिल नहीं हुआ.

सियार मातृहीन बच्ची कुंथी का कान ले जाता है. घाव गहराता है तो ऑपरेशन के लिए पिता हरकराम को पैसे की जरूरत पड़ती है. उसे कुंथी और खुंडी एक जैसी भाव भूमि पर नजर आती हैं. बच्ची के इलाज के दौरान उसे अस्पताल और फार्मा के दुष्चक्र का पता चलता है. उसे कहीं राहत नहीं मिलती क्योंकि भावना और तर्क में अंतर होता है. रास्ते की चढ़ाई चढ़ते-चढ़ते आखिर में टीले पर नाग देवता का मंदिर पड़ता है. वह बच्ची की प्राण-रक्षा की भीख मांगता है. फिर उसे याद आता है कि उसके हाथ में भैंस का कटा कान है, इन अशुद्ध हाथों से प्रार्थना नहीं करनी चाहिए. वह बगल में नदी में रगड़-रगड़कर हाथ धोता है. तभी उसे नाग देवता के दर्शन होते हैं. वहां उसे आवेश-आरोहण होता है और उस आरोहण की दशा में वह कटे कान को नदी के बहाव में फेंककर ऋण-मुक्त हो जाता है. ट्रांस में उसे सारी समस्याएं हल होती नजर आती हैं.

कथा-संग्रह की आखिरी कहानी ‘खड़क सिंह को रास्ता नहीं मालूम’ मिश्रित आबादी वाले पहाड़ी परिवेश की कथा है. भेकुआ पढ़-लिखकर जातीय चेतना से युक्त नेता होकर उभरता है. वह पुरखों को सताने की सजा स्थानीय पुजारी को दे देता है. सोपाननुमा पहाड़ी पर बसे उस गांव में बस्तियां जातीय क्रम में बसी हुई है. फिर मंदिर के आगे डोली से न उतरने पर बवाल मचता है.

समय के साथ आए सामाजिक परिवर्तन के चलते गांव में व्यवस्था उलट जाती है. पहाड़ी के मूल पर बसे दस्तकार लोग श्रमशीलता के चलते समृद्ध होते चले जाते हैं. अस्पताल, डाकघर खुलने से उनकी बस्ती सैणगधेरा गांव के केंद्र में आ जाती है. लेकिन तुन के पेड़ के स्रोत वाला टीला तीनों बस्तियों को एकसाथ जोड़े रखता है क्योंकि थकान तो जात-पात देखती नहीं. सामाजिक सौहार्द कायम रहता है. संबोधन जस के तस बने रहते हैं.


भीखूराम भू-सुधार कानून की आड़ में जमीन, मंदिर, जंगल हर जगह हक की मांग करता है. बहुसंख्यक उससे सहमत नहीं होते क्योंकि उन्हें परिवेश में चली आ रही समरसता भाती है, जबकि भीखूराम पीढ़ी-दर-पीढ़ी हुए शोषण का हिसाब चुकाना चाहता है. रिटायर्ड फौजी खड़क सिंह पंजाब में दिल दहलाने वाली घटनाओं और गांव में घटी घटनाओं से विचलित होकर पिता के बनाए ड्रीमहाउस दारकुड़ि में एकांतवास करने लगता है.

कथा-संग्रह का नाम वह: एक बीते मुहल्ले की कहानी
कथाकार: बटरोही
प्रकाशक: समय साक्ष्य
पृष्ठ: 88
मूल्य: ₹95

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