पहाड़ ‘ व पहाड़ के ठग .
पता नहीं क्यों कभी – कभी अचानक से हँसी आ जाती है उन लोगों के ऊपर जो इस ठगी के काम को बेहद ही निपुणता से अंजाम देने में लगे हुये हैं , सोचता हुँ कि उन्हें कैसा नहीं पता चलता कि सामने वाले को पता चल चुका है कि आप ठग हो , बावजूद इसके कि ‘ वो अपनी इस ठगी को छोड़ कोई दूसरा जो सम्मानित कार्य हो शुरू करें , नहीं बस , क्यों ,, क्यों ये किसी और के लिये छोड़ें ,, बड़ी मुश्किल से तो हम ने इस काम में कुशलता व निपुणता पायी है !
‘बात पहाड़ की’ लोकगायक बीके सामंत की कलम से (भाग 2)
हमारे इन पहाड़ी ठगों ने एक स्थान विशेष जिसका नाम लेना शायद उचित नहीं होगा की ठगों ( एक कहावत ) के बीच के अंतर को ख़त्म कर दिया है , ये मैं मेरे अब तक के अनुभवों से महसूस करता हुँ , हमारे पहाड़ी समाज में कुछ ठगों का नाम तो अब सार्वजनिक हो चुका है , ये बड़े – बड़े लोगों के साथ अपनी फ़ोटो हमारे पहाड़ के भोले भाले लोगों को दिखाकर ख़ूब माल ऐंठ रहे थे , कि हम तुम्हें यहाँ नौकरी लगा देंगे , उस आदमी से मिला देंगे , फ़लाना – फ़लाना वगैरह .
‘बात पहाड़ की’ लोकगायक बीके सामंत की कलम से (भाग 3)
इन दो महीनों के lockdown के दौरान हमारे इन ठग भाइयों का काम पुरी तरह से चौपट हो चुका है , और मुझे उम्मीद है कि यही निरंतरता आगे भी बनी रहेगी . जिस से कि ये तो सबक़ लें ही लें ‘ साथ इन के ‘ इन्हें इस ठगी के गुर सिखाने वाले इनके गुरुओं (गुरु घंटालों ) को भी हतोत्साहित होकर इस ठगी के कार्य को हमेशा – हमेशा के लिये अलविदा कह देना पड़े .
‘बात पहाड़ की’ लोकगायक बीके सामंत की कलम से (भाग 4)
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