हल्द्वानी- दिल्ली से लौटे प्रवासी ने गांव की बदली तस्वीर, 26 साल की बंजर भूमि पर लहराई हरियाली

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पहाड़ को सालों पहले छोड़ चुके पर प्रवासियों ने इस लॉकडाउन में वापस आकर पहाड़ों की तस्वीर और तकदीर बदलने की नई कोशिश की है लंबे इस समय से शहरों में आजीविका के चलते वह कुछ नहीं कर पा रहे थे। वर्षों से पहाड़ छोडक़र दिल्ली, मुंबई, लखनऊ जैसे बड़े शहरों में काम करने वाले प्रवासियों को कोरोना ने गांव लौटने का मौका दिया। बस इसी मौके को प्रवासियों ने गांव की तस्वीर सुधारने में लगा दिया। फिर क्या था वर्षों से बंजर पड़े खेतों में फैसले लहराने लगी और बंद पड़े घर आबाद हो गये। आंगनों में किलकारियां गंूजने लगी फिर से पहाड़ अपने पुराने रंग में लौट आया।

ऐसा ही कुछ नया करने की चाह लेकर फरीदाबाद (दिल्ली) से गांव लौटे नीरज बवाड़ी ने किया। 37 साल के नीरज बवाड़ी बताते है कि वह पांच साल की उम्र में अपने परिवार के साथ दिल्ली चले गये थे। इसके बाद वही पले-बढ़े लेकिन पहाड़ के प्रति प्यार और कसक हमेशा उनके मन में रहती थी। मन में था पहाड़ के लिए कुछ किया जाय लेकिन आजीविका दिल्ली में होने के चलते वह कुछ नहीं कर पाते थे। ऐसे में मार्च से शुरू हुआ कोरोनाकाल उनके लिए एक बड़ा अवसर लेकर आया। वह 32 साल बाद एक लंबे समय के लिए फरीदाबाद से अपने परिवार के साथ अल्मोड़ा जिले के भिक्यिासैन तहसील के ग्राम बवाड़ी किचार अपने गांव लौटे। 14 दिन क्वारंटीन के समय उन्होंने गांव मेंं कुछ करने की योजना बनाई।

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क्वारंटीन का समय पूरा होने के बाद उन्होंने गांव के बड़े-बुजुर्गों, महिलाओं और बच्चों को अपनी प्लानिंग बताई। नीरज ने बंजर खेतों की बहाली, व्यवसायिक कृषि, प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग कर ग्रामीणों को स्वरोजगार के प्रति जागरूक किया। उनकी इस योजना पर पूरे गांव वालों ने हामी भर दी फिर क्या था। नीरज के वर्षों के सपने पूरे होने का समय शुरू हो गया। उन्होंने इस प्रोजक्ट को प्रोजक्ट सांगैर नाम दिया। दरअसल यह उनके खेत का ही नाम है। गांव वालों ने उनका साथ देना शुरू कर दिया। उनका काम देख ग्राम प्रधान किशोर बवाड़ी, बीडीसी सदस्य ललित मोहन बवाड़ी ने भी उन्हें भरपूर सहयोग दिया। अब नीरज की प्लानिंग जमीनी स्तर पर दिखने लगी थी।

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बवाड़ी के नेतृत्व में ग्रामीणों ने काम करना शुरू किया। करीब 25 साल से भी ज्यादा समय से बंजर पड़े खेतों में आम, नींबू, सेव, संतरे, चदन समेत कई पेड़-पौधे लगाए। हरेला पर्व के दौरान उन्होंने 300 से अधिक पेड़ लगाये। उनकी मेहनत से बंजर खेतों के चारों ओर छोटे-छोटे पेड़-पौधें लहराने लगे। बाकि की भूमि पर उन्होंने जुताई शुरू कर दी। इसे लिए उन्होंने छोटे हैंड ट्रैक्टर का सहारा लिया। उन्हें देख महिलायें भी आगे आयी और टै्रक्टर चलाने लगी। जिन महिलाओं के हाथों में हमेशा दराती-कुदाल रहती थी। वह अब ट्रैक्टर को बखूबी चलाने लगी। उनके कार्य को देखकर उद्यान विभाग के अधिकारियों ने भी उनका उत्साह बढ़ाया।

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अधिकारियों ने गांव के लोगों को व्यावसायिक खेती के बारे में जानकारी दी। जिसका परिणाम आज ग्राम बवाडी किचार गांव सुर्खियों में आ गया। अब पूरे ग्रामीणों ने टै्रक्टर की मदद से बंजर भूमि में फसल उगाई शुरू कर दी है। इसके लिए नीरज बवाड़ी की जमकर तारीफ हो रही है। इससे पहले नीरज बवाड़ी ने फरीदाबाद में कुमाऊंनी और गढ़वाली कक्षायें शुरू कर वहां रहने वालें उत्तराखंड के लोगों को अपनी भाषा के प्रति जागरूक करने का काम भी किया। आज फिर वर्षों बाद पहाड़ लौटकर अपने गांव की तस्वीर बदल दी।

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