…
वो चादरें थीं
ढक लेतीं मान की बदसूरत गांठें
सिखातीं पसारना ज़रूरतें अपनी हद तक
सिकुड़तीं तो बाँध लेतीं अहम की सब गठरियाँ
फैलतीं तो धरती हो जातीं
उन्हें तौलिया समझा गया
पोंछकर सर
पैर
गीला बदन
टांगा गया रिश्तों के बंधे तार पर
वो गौरेया थीं
चार कदम और आसमान के एक बहुत छोटे टुकड़े तक पहुंच थी उनकी
उन्हें कठफोड़वा समझा गया
कुछ तिनकों के लिए खुली
चोंच जाने किस कोठार में सेंध का बायस समझ उड़ाया गया
आँगन से
वो रोम थीं
त्वचा की सांस को उगी हुई
उन्हें नाखून समझ
कुतरा गया
वो गुठलियां थीं
तमाम सम्भावनाओं और चन्द इच्छाओं से भरी
उन्हें छाल समझ छीला गया
चूस कर बीज की तरह यहां वहां थूका गया
अनजाने में उन्हें उनसा ही होने को रोपा गया
वो स्त्रियां थीं
उन्हें खानों में छांटा गया
बहन, बेटी, बहू की पोटलियों में बांध कर
समयानुसार बांटा गया !

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