हो ली होली तो बताइए ज़रा आप इनमें से कौन से वाले हैं.

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बुरा न मानो होली है!

भई क्यों मानना बुरा, और अगर मान भी गए तो इन होल्यारों का क्या उखाड़ लेंगे। हैं भई?

किसिम-किसिम के होल्यार। जितने रंग उससे ज़्यादा होलियार। मल्लब, अब बताएं हाल भी तो बताएं क्या।

कुछ तो ऐसे जिनको जाने बालों से कित्ता लगाव होता है। जूओं के सारे रास्ते हलाक़ कर देते हैं। इतना अबीर घुसा देते हैं और इतने अंदरूनी हिस्सों, खोहों, पगडंडियों, रस्तों में पहुंच-पहुंच कर जितना तो सर्जिकल स्ट्राइक में जवान नहीं घुसते होंगे। नहाते वक्त सबसे गन्दी और बीहड़ वाली गाली इन्हीं के लिए निकलती है। जितना पानी डालो उतना रंग निकलता है। कान उलट कर उप्पर ताकने लगते हैं कि बस करो बे, कितना रगड़ोगे।

फोटो साभार सोशल मीडिया

कुछ होते हैं जो जनम के नन्गे। उन्हें कपड़े चाहिए भाई। कुर्ते पर विशेष नज़र रहती है। पजामे पर हाथ लगाते हमसे ज़्यादा गुदगुदी में रहते हैं। इनसे कम से कम दो हाथ की दूरी बनानी पड़ती है। इधर सावधानी, हटी इधर ही दुर्घटना घटी। उधर तो आपको भागना पड़ता है। समझदार ऐसे लोगों से बचने के लिए ही अंदर वाला मामला डबल रखते हैं। डबल लॉक। चाभी भी नहीं रखते। लॉक तो लॉक। समझदार लोगों को बाद में कैंची से काटकर हवा-पानी बदलते देखा है।

कुछ ऐसे होते हैं जिनकी माँ को नमस्कार करना बनता है। उन्हें ज़रूर मेहमानों के आगे मंजन न करके आने के लिए सार्वजनिक घुड़की मिली होगी। ये बात उनके अवचेतन में कतई बिलबिला रही होती है। सलाह ये है कि इनसे रंग लगवाते वक्त आपको मुस्कुराना नहीं चाहिए वर्ना मौका मिलते ही वो आपके चियारे हुई मुंह में अपने लाल दन्त मंजन में सनी उंगलियां घुसाकर तब तक मलते हैं जब तक आप उनके हाथ पीले न कर दो कै से।

एक होते हैं जो काउंटर अटैक में माहिर। आपने एक बार उकसा भर दिया बस्स! बार-बार हमला करते हैं। अचानक कूदकर सरप्राइज़ देते हैं। पीछे से, दाहिने-बाएं से और ऊपर से। लेयर-पर-लेयर। जितना सारे मिलकर लगाते हैं उतना ये अकेले ही निपटा देते हैं। नहाते वक्त वो वाली गालियां इनके हिस्से भी आती हैं। आपको इनका पैटर्न याद होना चाहिए। पहले नीला लगाया था ससुरे ने, फिर पीला फिर हरा … अब निकालते वक्त रिवर्स पैटर्न फॉलो कीजिये ‘ये लाल निकल गया अब पीला निकलेगा, तब हरा फिर नीला… अरे ये सिलेटी कहां से निकलने लगा… कहा था ना पैटर्न एन्ड सरप्राइज़!

फोटो साभार सोशल मीडिया

कुछ विशेष किसिम के रिश्ताबन्द होलियार होते हैं। जीजा वर्ग या फूफा वर्ग वाले। इन्हें रिश्तों के तहत ही होली खेलनी होती है। लड़की ने कहा ,मैं तो आपकी सा…’ इत्ते में ही लपक के अबीर उड़ेलने लग जाते हैं ये भी नहीं सुनना गवारा करते कि लड़की सा… ‘साली’ के लिए नहीं ‘साथ नहीं खेलूंगी क्योंकि मुझे नज़ला हो रक्खा है’ के लिए कहा था। अति उत्साह में ये सोच भी नहीं पाते कि उनके सूखे रंग वाला हाथ गीला जिस पानी की वजह से हुआ वो नलके का नहीं नजले का था।

कुछ होते हैं जिन्हें कमल का फूल खिलाने में आनंद मिलता है। इनकी पहली कोशिश रहती है कि आपको साबुत कीचड़ में खिला सकें। आपकी मजबूती से अगर आप बचे तो वो ‘कुंआ ही प्यासे के पास जाए’ वाला सिद्धांत लगाकर कीचड़ का उठाये जा सकने वाला सबसे बड़ा लोथड़ा उठाकर आप के ऊपर फेंकते हैं। ना! आप लाख कमर मटकाकर ‘दिद्दी तेरा देवर दीवाना’ वाली माधुरी-मार्का फील लेना चाहें लगते आप उस वक्त नायक वाले अनिल कपूर ही हैं।

कुछ पाक-कला कक्षा से बहरियाए गए होलियार भी होते हैं। इनके रंगों की तबियत अजीब मिक्स वेज टाइप की होती है। ऐसा लगता है कि रंगों के ऊपर पूरी मसालदानी उड़ेल दी है। हल्दी, धनिया और तो और लाल मिर्च! छुड़ाते वक्त त्वचा पर दाने नहीं लड्डू उग आते हैं। रंगीन बूंदी के बड़े-बड़े ठग्गू के लड्डू। इन्हें गाली नहीं दी जाती, क्योंकि उस वक्त गाली के अतिरिक्त शरीर से बहुत कुछ निकल रहा होता है।

फोटो साभार सोशल मीडिया

ड्राई एन्ड वेट, दो ब्रॉड कैटेगरी तो वैसेही है होल्यारों की। ड्राई वालों के जीवन का सारा रस सूख चुका होता है। गुलाल और अबीर उनके हाथ की लटकी पन्नी में आलसियों की तरह हताश पड़े रहते हैं। किफ़ायती भी बड़े होते हैं ये क्योंकि वही पन्नी शाम को होली मिलन में भी काम आ जाती है। वो बड़े बेमन से एक चुटकी गुलाल उठाते हैं, अंगूठे से एक को निपटाकर, तीन बार गले लगकर, मध्यमा से दूसरे के माथे को निपटाकर, तीन बार गले लगकर, तर्जनी से तीसरे माथे का संसर्ग कराकर फिर तीन बार गले लग जाते हैं।

जबकि वेट होलियार उत्साह के चरम पर होते हैं। ऐसा लगता है कि इनका जनम ही किसी झरने, नहीं तो चापाकल के नीचे तो हुआ ही होगा। भीगना और भिगाना इनके जीवन के दो उद्देश्य लगते हैं। ये बस भांप भर लें कि आप कांप-कांप के सूख चले हो ये तत्काल दूसरी बाल्टी आपके सर पर खाली कर देंगे।

कुछ ‘कब के बिछड़े’ होल्यार होते हैं। आम दिनों में (या रातों में भी) ये आपको देखकर भी अनदेखा करके निकल जाते हैं लेकिन होली के दिन (नहीं, रात में नहीं) ये इस क़दर गले मिलते हैं कि गले पड़ने वाली कहावत भी शर्म से बौनी लगने लगती है। छिपकली भी क्या दीवार से ऐसे चिपकती होगी। गर्दन अकड़ानी पड़ती है क्या पता कब भावना की हिलोरें उठें और ये चुम्मा-चाटी पर उतर आएं। भाई, क्या भरोसा? इनके जैसे कुछ और आ जाएं तो उतने भर से ही आपका घर खोया-पाया केंद्र की फीलिंग देने लगता है।

मुझे बेवड़े होलियारों से बहुत प्रेम है। वैसे होली में मस्त-मलंग भंग और उसके सहोदर पदार्थों से छने-बने लोगों की भी कई श्रेणियां होती हैं लेकिन उसपर फिर कभी। होली पर मस्त झूमते ये होलियार वास्तव में अद्वैतवादी होते हैं। एकदम शुद्ध और पक्के वाले। ये साली और नाली, आदमी और कुक्कुर, नशा, नींद, बेहोशी, विक्षिप्तता और मृत्यु में कोई विभेद नहीं करते। परम तत्व को प्राप्त करते ही परम पद को प्राप्त कर लेते हैं। अखण्ड ध्यानी, अटल सन्यासी जिन्हें कपड़े-लत्ते, चाल-ढाल, भाषा-बोली का भी लगाव नहीं। रिस्पेक्ट!!

फोटो साभार सोशल मीडिया

कुछ रिवर्स होलियार भी होते हैं। खेलने निकलते हैं, पर खेलते नहीं होली। हर बार इनके न खेलने के पीछे कोई विशेष कारण रहता है जैसे दाने निकल गए, फोड़िया हुई गई, बुख़ार आवत आ। कभी-कभी तो निहायत ही अंतराष्ट्रीय कारण- तेल के कुओं में आग लग गई, हज़ारों लोग बेघर हुए पड़े हैं, चीन की पिचकारी…! बताते चलें कि अक्सर यही ‘कहीं आग लग गई/ कहीं गोली चल गई’ (मुक्तिबोध से मुआफी के साथ) वाले शरीफ़ लोग सबके निशाने पर रहते हैं। इनके बहाने के ऊपर सम्भवतः सभ्यता का सफलतम, महानतम और दिव्यतम आदर्श वाक्य बुना गया है- ‘बुरा न मानो होली है।’

हमें न ही बताएं क्योंकि हम तो #उधर…

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