वहाँ भी होर्डिंग और काला बाज़ारी होती है या नहीं ये नहीं पता लेकिन बाज़ार इंसान के फितूर को हवा देना हर जगह जानता है..पढ़िए बेबाक अभिव्यक्ति

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अब जब वायरस के बारे में सच से ज़्यादा अफवाहें हैं, अपने दोस्तों रिश्तेदारों से बात कीजिये जो विदेशों ख़ासकर उत्तरी गोलार्द्ध के देशों में रह रहे हैं. आपको आने वाले दिनों की आहट साफ सुनाई देगी. जी हाँ #कोरोना वायरस की वजह से ही कह रहा हूँ.

स्क्रीनिंग और आईसोलेशन, कारण्टाइन और सोशल डिस्टेंसिंग पर ठीक-ठाक ज़ोर दिया गया है. #मैंडेटरी_कारण्टाइन है. बॉर्डर्स सील किये गए हैं. खाने-पीने की चीज़ों और ज़रूरत के सामानों की राशनिंग की जा रही है. वहाँ भी होर्डिंग और काला बाज़ारी होती है या नहीं ये नहीं पता लेकिन बाज़ार इंसान के फितूर को हवा देना हर जगह जानता है.

बिग एंड माइटी कॉरपोरेट दुनिया का चरित्र भी हर जगह एक जैसा ही होता है. (यहाँ कोरोना के एमर्जेन्स में बाज़ार के षणयंत्र की बात भी की जा सकती है पर रहने देते हैं) कारपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी के ओढ़े गए लबादे के अंदर बहुत झोल है. आप पूछ पाएंगे मालिकों से कि उनके पास वर्क फ्रॉम होम के अलावा कुछ है देने के लिए? आपके लिए, उसके उपभोक्ता के लिए या वृहदतर समाज के लिए. नहीं पूछ सकते न, पूछना तो सरकार को चाहिए न?

सरकारें पूछ पाएंगी या नहीं मगर क्या आप पूछ पाएंगे अपनी सरकारों से कि अपनी जिम्मेदारियों का घेरा कम करते-करते जिन बड़े घरानों के स्वागत के लिए पलक-पाँवड़े बिछाए उनके तंबुओं का बम्बू ठोस है या पोला है. वो उठकर चल तो न देंगे. उन्होंने नागरिक वर्सेज़ उपभोक्ता के जिस तराज़ू पर आपको तौला है उसकी बाँट कितनी ठोस है इस नाज़ुक समय में नागरिकों के हक़ में? नहीं झोला नहीं तौला. भाषा की ज़रा सी इधर-उधर आपके सामने आईना रख देती है न? माफ़ करना मैं फ्रस्टेशन में ज़रा इधर-उधर निकल जाता हूँ.

आप देखेंगे कि ये सरकारें छोटी पड़ जाएगी. यकीन जानिए उसके हाथ काटने की पिछले तीन दशकों से चल रही कार्यवाही का अनाव्रित परिणाम आपके सामने आएगा. आप देख पाएंगे या नहीं ये आपकी शक्ति पर निर्भर है. भक्ति नहीं शक्ति. भाषा की ज़रा सी इधर-उधर आपके सामने आईना रख देती है न? माफ़ करना मैं फ्रस्टेशन में ज़रा इधर-उधर निकल जाता हूँ.

और वृहद समाज? उसने अपना कद बहुत छोटे टुकड़े में बँटने दिया है. धर्म-जाति-समूह-व्यवसाय-भाषा-क्षेत्र जाने क्या-क्या और कितने छोटे-छोटे समूह. उसने अपने सामूहिक कर्तव्यों की होली कब की सजा ली है. मगर ठहरिए. लकड़ी डालने से पहले एक साँस लीजिये.

अभी आग नहीं लगी है. अभी भी इसे रोका जा सकता है. पूछने-पाछने का काम तो चलता रहेगा पर अभी ध्यान अपनी, अपने साथ वालों की और पूरे समाज की की जाए. सरकार, प्रशिक्षित डॉक्टर्स की सुनी जाए. एडवाइज़रीज़ पर अमल किया जाए. लड़ा जाए.

बाहरी मुल्कों से आने वाली ख़बरें आगाह कर रही हैं कि समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभाना कितना महंगा पड़ सकता है. सुनिए, देखिये, पढ़िए. फिलहाल खुद से ही सवाल पूछिये.

वैसे आप छंगूमल छनिया की एक्टिविटीज़ को भी ट्रैक कर सकते हैं.

ट्रैक… ट्रैक, ट्रोल नहीं. देखिये भाषा की ज़रा सी इधर-उधर आपके सामने आईना रख देती है. माफ़ करना मैं फ्रस्टेशन में ज़रा इधर-उधर निकल जाता हूँ.

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