पहाड़ के संघर्ष भरे जीवन और सुनहरी यादों का प्रमाण घर के आंगन में बने उखो यानी ओखली (pahad me okhali)का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है। पहाड़ में ओखली को आंगन के एक बड़े और ठोस पत्थर में बनाया जाता है। सामान्यतह ओखली में मूसल के माध्यम से पारम्परिक अनाजों को कूटने का काम किया जाता है। उत्तराखण्ड के गांव जिस तेजी से सालों साल पलायन के शिकंजे में आ रहे है जिसे देखते हुए सुनसान आंगन में उपेक्षा की शिकार बनी ओखली आज अपनी दुर्दशा पर रोने को मजबूर है।
ओखल और मूसल का अटूट रिश्ता अब कहानियों में ही सुनने को मिलती है, क्योंकि अब पर्वतीय गाँवो मे ओखल और मूसल का प्रयोग कम होने लगा है। ओखली में कूटे धान से निकले चावलों से शुभ कार्य में पकवान बनते थे, साथ ही वैवाहिक समारोह में हल्दी की रश्म में ओखल से ही कच्ची हल्दी को कूटा जाता था। उत्तराखण्ड के पारम्परिक आनाज मडुवा समेत कई आनाज को ओखली में ही कूटने के बाद प्रयोग में लाया जाता है। पहाड़ की पत्थर की ओखली (pahad me okhali) अपने आप में पर्वतीय संस्कृति को समेटे हुए है, जो एहसास दिलाती है कि पहाड़ की महिलाओं द्वारा किन विपरीत परिस्थितियों में खेती किसानी की जाती है, यानी पहाड़ का जीवन किसी पहाड़ से कम नही है।
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जबकि प्राचीन सभ्यता की माने तो पत्थर से निर्मित ओखली पाषाणकाल से प्रयोग में लाई जाती रही है। पहाड़ो में धान कूटने के लिए गांव की महिलाओं द्वारा सामूहिक रूप कार्य किया जाता है, जिसको लेकर प्रत्येक परिवार का नम्बर अपनी बारी के अनुसार ही आता है। बुजुर्ग बताते है कि पारम्परिक परम्पराओ की माने तो ओखली (pahad me okhali) में ही कूटे गए धान से देवी देवताओं की पूजा के लिए पकवान और रोट बनाये जाते है। ओखली का महत्व इन दिनों साल में एक दिन सबसे ज्यादा होता है जब दीपावली के दूसरे दिन यम द्वितीया को चढ़ाने के लिए ओखली में च्यूडे कूटे जाते हैं। विषम भोगौलिक परिस्थितियों के राज्य उत्तराखण्ड को यानी सरकार को जरूरत है पारम्परिक यंत्रों और परम्पराओ को संरक्षित करने की।
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