राज्य थानों के जैसे बिहेव कर रहे हैं. ‘लाश पुलिया के पूर्वी मुहाने पर थी मामला तुम्हारे थाने का है, तुम दर्ज करो.’
‘ना! पुलिया के मुहाने, सड़क की दाहिनी पटरी पर थी इसलिए मामला तुम्हारे थाने का हुआ, तुम लिखो.’
एक राज्य धकिया रहा है. उसके लिए ज़िंदा जागता इंसान मुसीबत है. वायरस है. उसके पास संसाधन नहीं हैं, सुविधाएं नहीं हैं वो उन्हें रखकर, खिला-पिला-बचा नहीं सकता. उसकी प्राथमिकता उसके ‘अपने’ नागरिक हैं.
एक राज्य उन्हें स्वीकार नहीं कर पा रहा है, वापस भेज रहा है. जहाँ से आए हो वहीं जाओ. उसके पास भी संसाधन नहीं हैं, ‘अपने’ नागरिकों की प्राथमिकताएं हैं.
ये ‘न-इनके-न-उनके’ लोग दरअसल देश के नागरिक भी हैं या नहीं कह नहीं सकते. क्योंकि अभी एनपीआर का काम रुका हुआ है.
कोई है जो घुड़क कर कह सके प्रेषक को कि जब टूटी पाइप लाइन की मरम्मत को प्लम्बर चाहिए था तब नहीं भगाया, अब रक्खो, या प्राप्तिकर्ता को कि जब रोटी की आस तोड़ी थी तब तुमसे कुछ न कहा गया अब तो समझो अपनी ज़िम्मेदारी, रक्खो इन्हें अगर आ गए हैं.
ऐसी ही आपाधापी मेडिकल उपकरणों, दवाओं की खरीद-फरोख्त में भी चल रही है. कोई समन्वय नहीं.
प्रांत सब अपने-अपने जुगाड़ में हैं. जिस राज्य में फैक्ट्रीज़ हैं वहाँ की सरकाओं ने उन्हें धमका रक्खा है कि पहले हमें सामान सप्लाई करें फिर अन्य को. कोई है जो ये निर्णय ले कि किसे वेंटीलेटर चाहिए पहले, किसे पीपीई, किसे एम्बुलेंस?
यही स्थिति बजट और पैकेज की भी है. सारी सरकारें अलग-अलग बजट एलोकेशन और रिलीफ पैकेज बाँटने की कवायद में हैं. जिसकी जितनी सामर्थ्य. संसाधनों पर जिसकी जितनी पकड़. केंद्र से जिसकी जितनी लाइजनिंग. कोई है जो ये कह सके कि प्रभावित, संवेदनशील, सामान्य क्षेत्रों में किस मद पर कितना, कैसे, कौन खर्च करेगा?
सबकी अपनी-अपनी गाइड लाइंस भी हैं. कर्फ्यू (?!) में ढील के घण्टे भी. सामानों की उपलब्धता का सिस्टम भी. कालाबाज़ारी को डील करने के तरीके भी. कोई है जो एक कोहेरेंट स्ट्रेटेजी, टास्क फोर्स, ट्रेनिंग की योजना करे, एक साल-एक माह-दस घण्टे की टास्किंग- फीड बैक -रीमॉडलिंग की व्यवस्था वायरस से झूझने की बना सके, सभी राज्यों से लागू करवा सके.
लोक सभा मुद्दों, संसाधनों और स्ट्रैटेजी से पंचायत चुनाव लड़े जाने वाले इस देश की सारी सरकारें दूर और देर तक मार करने वाले इस वायरस को पासिंग द पार्सल के सिद्धांत पर खेल रही हैं. आला नेतृत्व दूरदर्शिता छोड़ ‘दूरदर्शना नॉस्टेल्जियाना गते रामायना’ तो सारे अधिकारी सो कर उठते ही सो’शल मीडिया से संक्रमित हो चुके हैं.
वायरस ने कोई भेदभाव नहीं बस एक चालाकी की है. उसने हमारी कमज़ोर और मजबूत प्रतिरोधक क्षमता में विभेद पहचाना है. हम भी शायद वायरस को इमिटेट कर रहे हैं वर्षों से. हम भी मजबूत-अमीर को दवा और गरीब-कमज़ोर को जिल्लत खिला रहे हैं, वर्षों से.
क्यों? क्योंकि हर नेक, वैज्ञानिक और तार्किक विचार का एक प्रतिपक्ष पाला है, पोसा है, बड़ा किया है हमने.
हमारे पास धर्म है जो दूसरे से चिढ़ता है, जाति है जो दूसरे को नीचा दिखाती है, भाषा है जो सबसे श्रेष्ठ है, क्षेत्र है जो दूसरे से ज़्यादा उर्वर है! हमारे पास एक शिव पुराण है जिसमें कोरोना वायरस से बचाव का श्लोक है. हमारे पास कबूतर के आंखों की झिल्ली है जो नुस्ख़ा है ख़ुदा के इस कहर से बचने का.
आओ वायरस बाबू आओ.
हमारे पास है इंडिया दैट वाज़ भारत, अ फेडरेशन विद यूनिटरी बायस!
तुम्हारे पास क्या है?
(उन सभी अधिकारियों-कर्मचारियों, नेताओं, स्वयंसेवी संगठनों और समर्पण के साथ लगे अन्य सभी को सलाम के साथ जो इन विषम और अत्यंत विकट परिस्थितियों में भी इस महामारी से वास्तव में लोहा ले रहे हैं.)

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