आधुनिकता की दौड़ में हमने बहुत सी चीजों को अपने पीछे छोड़ दिया. जिंदगी को आसान बनाने और स्वार्थ सिद्धि के चलते हुए समय के साथ हमने अपनी लोक सांस्कृतिक विरासतो को भी पीछे की ओर धकेलने का काम किया है. हमारे पौराणिक परंपरागत साधन धीरे-धीरे अपना अस्तित्व खो रहे हैं और इन्हीं परंपरागत साधनों में कभी “घराट” यानी “घट” हुवा करता था. Gharat

कभी पहाड़ के गाड़ गधेरे से लेकर छोटी-बड़ी नदियों के किनारे पानी की कल कल के आवाज के साथ “घराट” यानी “घट” में मेला सा लगा रहता था, पहाड़ों के ये “घट” पहाड़ की सामाजिक आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन की धुरी हुआ करते थे, तत्कालीन समय पहाड़ी क्षेत्रों में गेहूं और मडवा पीसने का घराट यानी घट एकमात्र साधन था, “घराट” संचालक को अनाज पीसने के बदले थोड़ा बहुत अनाज मिला करता था जिससे उसकी रोजी रोटी चलती थी। story of uttarakhand gharat

आज की आधुनिक चक्की के मुकाबले “घराट” (Gharat) का पिसा हुआ आटा न सिर्फ पौष्टिक हुवा करता था बल्कि पहाड़ की सामाजिक संस्कृति को भी दर्शाता था, “घराट” नदी के एक छोर पर स्थापित किया जाता था। जिसमें नदी के किनारे से लगभग 100 से 150 मीटर लंबी नहरनुमा के द्वारा पानी को एक नालीदार लकड़ी (पनाले) के जरिये जिसकी ऊंचाई से 49 अंश के कोण पर स्थापित करके पानी को उससे प्रवाहित किया जाता है। पानी का तीव्र वेग होने के कारण घराट के नीचे एक गोल चक्का होता है, जो पानी के तीव्र गति से घूमने लगता है। वी आकार की एक सिरा बनाया जाता है जिसमें अनाज डाला जाता है ओर उसके नीचे की ओर अनाज निकाल कर पत्थर के गोल चक्के में प्रवाहित होकर अनाज पीसने लगता है।

विशेषज्ञों के मुताबिक आज से करीब 50 साल पहले ही हर गांव में खासी संख्या में “घराट” (Gharat) हुआ करते थे। उरेडा की मानें तो प्रदेश में करीब 17 हजार “घराट” अब भी मौजूद हैं। इनमें से मात्र 1300 का अपग्रेडेशन हो पाया है।समय के बदलने के साथ ही इन घराटों की उपयोगिता कम हुई और इनके आधुनिकीकरण पर ध्यान न देने की वजह से गांवों का यह कुटीर उद्योग समाप्त होने की कगार पर पहुंच गया।
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1 thought on “उत्तराखंड- कभी ‘घराट’ (Gharat) के इर्द गिर्द ही घूमती थी पहाड़ की जिंदगी, आज अस्तित्व ही खतरे में…”
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Gharat ke bare me logo ko jagrit karna chahie.aur sarkar ki yojna ko bhi bataya jay.