आने दो विभीषण को,
उनसे बात करते है,
तुम्हारी,बात भी मानेंगे,
पहले,उनको सुनते है,
मेरी शरण मे आया है,
उनको,ठुकरा नही सकता,
बिना जाने,बिना बूझे,
ऐसे,लौटा नही सकता,
तुम्हे क्या डर है,भाई,
तुम तो,काल को डराते हो,
अंगद जाओ,
सादर विभीषण को ले आओ,
मुझे मर्यादा का भी,ध्यान धरना है
रावण को हराने को,
छल नही करना है,
मुझे अगर दैव रूप से ही काम करना होता,
तो भ्राता,मैं इतनी तकलीफ क्यों सहता ?
क्यों सालो-साल इन घने ,निर्जन वनों में रहता ?
क्यों लेता मदद वानरों की ?
क्यों शबरी के झूठे बेर खाता ?
क्यों केवट से प्रार्थना करता ?
क्यों बाली को हरता ?
मुझे मेरे कुल का भान है,
मुझे मर्यादा का ग्यान है,
मुझे सब कुछ सहना ही होगा,
मुझे ऐसे संयम से रहना ही होगा,
मेरी अयोध्या,उदास हुई,
क्योंकि मैं,पिता के वचन से बंधा था,
मेरे पिता,
माँ के वचन से बंधे थे,
जब वाणी का इतना ओज हो,
जब वचनों का इतना तेज हो,
तब बहुत कुछ सुख छोड़ना पड़ता है,
बहुत कुछ मन मोड़ना पड़ता है,
नही है,कुछ भी मुश्किल,
सीता को मैं,ला सकता हूँ,
अकेले ही नष्ट करके,लंका को
सागर पार सकता हूँ,
लेकिन,फिर मैं समाज को क्या कहूंगा ?
दैवीय शक्ति के अगर भरोसे रहूंगा ?
मुझे करना है ऐसे काम,
ताकि सदैव रहे,सबको ध्यान,
नियम और वचन को सदैव निभाऊंगा,
तभी मर्यादा पुरूषोत्तम कहलाऊंगा,
जाओ,सभी, ले आओ सादर विभीषण को,
मैं सरनागत को,कभी भी,
तज नही पाऊँगा.
अरविन्द राय
ऋषिकेश



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